7.प्रिंट कल्चर और आधुनिक दुनिया
पहली प्रिंटेड किताब
प्रिंट टेक्नॉलोजी का विकास सबसे पहले चीन, जापान और कोरिया में हुआ। चीन में 594 इसवी के बाद से ही लकड़ी के ब्लॉक पर स्याही लगाकर उससे कागज पर प्रिंटिंग की जाती थी। उस जमाने में कागज पतले और झिर्रीदार होते थे। ऐसे कागज पर दोनों तरफ छपाई करना संभव नहीं था। कागज के दोनों सिरों को टाँके लगाकर फिर बाकी कागज को मोड़कर एकॉर्डियन बुक बनाई जाती थी।
एक लंबे समय तक चीन का राजतंत्र ही छपे हुए सामान का सबसे बड़ा उत्पादक था। चीन के प्रशासनिक तंत्र में सिविल सर्विस परीक्षा द्वारा लोगों की बहाली की जाती थी। इस परीक्षा के लिये चीन का राजतंत्र बड़े पैमाने पर पाठ्यपुस्तकें छपवाता था। सोलहवीं सदी में इस परीक्षा में शामिल होने वाले उम्मीदवारों की संख्या बहुत बढ़ गई। इसलिये किताबें छपने की रफ्तार भी बढ़ गई।
सत्रहवीं सदी तक चीन में शहरी परिवेश बढ़ गया। इसलिये छपाई का इस्तेमाल कई कामों में होने लगा। अब छपाई केवल बुद्धिजीवियों या अधिकारियों तक ही सीमित नहीं था। अब व्यापारी भी रोजमर्रा के दैनिक जीवन में छ्पाई का इस्तेमाल करने लगे। इससे व्यापार से जुड़े हुए आँकड़े रखना आसान हो जाये।
सत्रहवीं सदी तक चीन में शहरी परिवेश बढ़ने के कारण छपाई का इस्तेमाल कई कामों में होने लगा। अब छपाई केवल बुद्धिजीवियों या अधिकारियों तक ही सीमित नहीं थी। अब व्यापारी भी रोजमर्रा के जीवन में छपाई का इस्तेमाल करने लगे ताकि व्यापार से जुड़े हुए आँकड़े रखना आसान हो जाये। कहानी, कविताएँ, जीवनी, आत्मकथा, नाटक आदि भी छपकर आने लगे। इससे पढ़ने के शौकीन लोगों के शौक पूरे हो सकें। खाली समय में पढ़ना एक फैशन जैसा बन गया था। रईस महिलाओं में भी पढ़ने का शौक बढ़ने लगा और उनमें से कईयों ने तो अपनी कविताएँ और कहानियाँ भी छपवाईं।
जापान में प्रिंट
प्रिंट टेक्नॉलोजी को बौद्ध धर्म के प्रचारकों ने 768 से 770 इसवी के आस पास जापान लाया। बौद्ध धर्म की किताब डायमंड सूत्र; जो 868 इसवी में छपी थी; को जापानी भाषा की सबसे पुरानी किताब माना जाता है। उस समय पुस्तकालयों और किताब की दुकानों में हाथ से छपी किताबें और अन्य सामग्रियाँ भरी होती थीं। किताबें कई विषयों पर उपलब्ध थीं; जैसे महिलाएँ, वाद्य यंत्र, गणना, चाय समारोह, फूल सज्जा, शिष्टाचार, पाककला, प्रसिद्ध स्थल, आदि।
यूरोप में प्रिंट का आना
आपने इटली के महान खोजी मार्को पोलो का नाम सुना ही होगा। मार्को पोलो जब 1295 में चीन से लौटा तो अपने साथ ब्लॉक प्रिंटिंग की जानकारी लेकर आया। इस तरह इटली में प्रिंटिंग की शुरुआत हुई। उसके बाद प्रिंट टेक्नॉलोजी यूरोप के अन्य भागों में भी फैल गई। उस जमाने में कागज पर छपी हुई किताबों को सस्ती चीज समझा जाता था और हेय दृष्टि से देखा जाता था। इसलिए कुलीन और रईस लोगों के लिए किताब छापने के लिए वेलम का इस्तेमाल होता था। वेलम चमड़े से बनाया जाता है और पतली शीट की तरह होता है। वेलम पर छपी किताब को रईसी की निशानी माना जाता था।
पंद्रह सदी के शुरुआत तक यूरोप में तरह तरह के सामानों पर छपाई करने के लिए लकड़ी के ब्लॉक का जमकर इस्तेमाल होने लगा। इससे हाथ से लिखी हुई किताबें लगभग गायब ही हो गईं।
गुटेनबर्ग का प्रिंटिंग प्रेस
ग़ुटेनबर्ग के प्रिंटिंग प्रेस ने इस क्षेत्र में क्रांति ला दी। गुटेनबर्ग किसी व्यापारी के बेटे थे। अपने बचपन से ही उन्होंने जैतून और शराब की प्रेस देखी थी। उसने पत्थरों पर पॉलिस करने की कला भी सीखी थी। उसे सोने के जेवर बनाने में भी महारत हासिल थी और वह लेड के साँचे भी बनाता था जिनका इस्तेमाल सस्ते जेवरों को ढ़ालने के लिए किया जाता था।
इस तरह से गुटेनबर्ग के पास हर वह जरूरी ज्ञान था जिसका इस्तेमाल करके उसने प्रिंटिंग टेक्नॉलोजी को और बेहतर बनाया। उसने जैतून के प्रेस को अपने प्रिंटिंग प्रेस का मॉडल बनाया। उसने अपने साँचों का इस्तेमाल करके छापने के लिए अक्षर बनाये। 1448 इसवी तक गुटेनबर्ग ने अपने प्रिंटिंग प्रेस को दुरुस्त बना लिया था। उसने अपने प्रेस में सबसे पहले बाइबिल को छापा।
शुरु शुरु में छपने वाली किताबें डिजाइन के मामले में पांडुलिपी जैसी ही लगती थीं। उसके बाद 1450 से 1550 के बीच के एक सौ सालों में यूरोप के अधिकाँश हिस्सों में प्रेस लगाये गये। प्रिंट उद्योग में इतनी अच्छी वृद्धि हुई कि पंद्रहवीं सदी के उत्तरार्ध्र में यूरोप के बाजारों में लगभग 2 करोड़ किताबें छापी गईं। सत्रहवीं सदी में यह संख्या बढ़कर 20 करोड़ हो गई।
प्रिंट क्राँति और उसके प्रभाव
पाठकों का एक नया वर्ग
प्रिंट टेक्नॉलोजी के आने से पाठकों का एक नया वर्ग उदित हुआ। अब आसानी से किसी भी किताब की अनेक कॉपी बनाई जा सकती थी, इसलिये किताबें सस्ती हो गईं। इससे पाठकों की बढ़ती संख्या को संतुष्ट करने में काफी मदद मिली।
अब किताबें सामान्य लोगों की पहुँच में आ गईं। इससे पढ़ने की एक नई संस्कृति का विकास हुआ। बारहवीं सदी के यूरोप में साक्षरता का स्तर काफी नीचे था। प्रकाशक ऐसी किताबें छापते थे जो अधिक से अधिक लोगों तक पहुँच सकें। लोकप्रिय गीत, लोक कथाएँ और अन्य कहानियों को इसलिए छापा जाता था ताकि अनपढ़ लोग भी उन्हें सुनकर ही समझ लें। पढ़े लिखे लोग इन कहानियों को उन लोगों को पढ़कर सुनाते थे जिन्हें पढ़ना लिखना नहीं आता था।
धार्मिक विवाद और प्रिंट का डर
प्रिंट के आने से नये तरह के बहस और विवाद को अवसर मिलने लगे। धर्म के कुछ स्थापित मान्यताओं पर सवाल उठने लगे। पुरातनपंथी लोगों को लगता था कि इससे पुरानी व्यवस्था के लिए चुनौती खड़ी हो रही थी। ईसाई धर्म की प्रोटेस्टैंट क्राँति भी प्रिंट संस्कृति के कारण ही संभव हो पाई थी। धार्मिक मान्यताओं पर सवाल उठाने वाले नये विचारों से रोम के चर्च को परेशानी होने लगी। 1558 के बाद तो चर्च ने प्रतिबंधित किताबों की लिस्ट भी रखनी शुरु कर दी।
पढ़ने का जुनून
सत्रहवीं और अठारहवीं सदी में यूरोप में साक्षरता के स्तर में काफी सुधार हुआ। अठारहवीं सदी के अंत तक यूरोप के कुछ भागों में साक्षरता का स्तर तो 60 से 80 प्रतिशत तक पहुँच चुका था। साक्षरता बढ़ने के साथ ही लोगों में पढ़ने का जुनून पैदा हो गया। किताब की दुकान वाले अकसर फेरीवालों को बहाल करते थे। ऐसे फेरीवाले गाँवों में घूम घूम कर किताबें बेचा करते थे। पत्रिकाएँ, उपन्यास, पंचांग, आदि सबसे ज्यादा बिकने वाली किताबें थीं।
छपाई के कारण वैज्ञानिकों और तर्कशास्त्रियों के नये विचार और नई खोज सामान्य लोगों तक आसानी से पहुँच पाते थे। किसी भी नये आइडिया को अब अधिक से अधिक लोगों के साथ बाँटा जा सकता था और उसपर बेहतर बहस भी हो सकती थी।
प्रिंट संस्कृति और फ्रांसीसी क्राँति
कई इतिहासकारों का मानना है कि प्रिंट संस्कृति ने ऐसा माहौल बनाया जिसके कारण फ्रांसीसी क्राँति की शुरुआत हुई। इनमें से कुछ कारण निम्नलिखित हैं:
प्रिंट के कारण ज्ञानोदय के विचारकों के विचार लोकप्रिय हुए। इन विचारकों ने परंपरा, अंधविश्वास और निरंकुशवाद की कड़ी आलोचना की। वॉल्तेअर और रूसो को ज्ञानोदय का अग्रणी विचारक माना जाता है।
प्रिंट के कारण संवाद और वाद-विवाद की नई संस्कृति का जन्म हुआ। अब आम आदमी भी मूल्यों, संस्थाओं और प्रचलनों पर विवाद करने लगा। अब आम आदमी स्थापित मान्यताओं पर सवाल करने लगा।
1780 के दशक आने तक ऐसे साहित्य की बाढ़ आ गई जिसमें राजशाही का मखौल उड़ाया जाने लगा और उनकी नैतिकता की आलोचना होने लगी। प्रिंट के कारण राजशाही की ऐसी छवि बनी जिसमें यह दिखाया गया कि आम जनता की कीमत पर राजशाही के लोग विलासिता करते थे।
उन्नीसवीं सदी
उन्नीसवीं सदी में यूरोप में साक्षरता में जबरदस्त उछाल आया। इससे पाठकों का एक ऐसा नया वर्ग उभरा जिसमें बच्चे, महिलाएँ और मजदूर शामिल थे। बच्चों की कच्ची उम्र और अपरिपक्व दिमाग को ध्यान में रखते हुए उनके लिये अलग से किताबें लिखी जाने लगीं। कई लोककथाओं को बदल कर लिखा गया ताकि बच्चे उन्हें आसानी से समझ सकें। कई महिलाएँ पाठिका के साथ साथ लेखिका भी बन गईं और इससे उनका महत्व और बढ़ गया। किराये पर किताब देने वाले पुस्तकालय सत्रहवीं सदी में ही प्रचलन में आ गये थे। अब उस तरह के पुस्तकालयों में व्हाइट कॉलर मजदूर, दस्तकार और निम्न वर्ग के लोग भी अड्डा जमाने लगे।
प्रिंट तकनीक में अन्य सुधार
न्यू यॉर्क के रिचर्ड एम. हो ने उन्नीसवीं सदी के मध्य तक शक्ति से चलने वाला सिलिंडरिकल प्रेस बना लिया था। इस प्रेस से एक घंटे में 8,000 पेज छापे जा सकते थे।
उन्नीसवीं सदी के अंत में ऑफसेट प्रिंटिंग विकसित हो चुका था। ऑफसेट प्रिंटिंग से एक ही बार में छ: रंगों में छपाई की जा सकती थी।
बीसवीं सदी के आते ही बिजली से चलने वाले प्रेस भी इस्तेमाल में आने लगे। इससे छपाई के काम में तेजी आ गई।
इसके अलावा प्रिंट की टेक्नॉलोजी में कई अन्य सुधार भी हुए। सभी सुधारों का सामूहिक सार हुआ जिससे छपी हुई सामग्री का रूप ही बदल गया।
किताबें बेचने के नये गुर
उन्नीसवीं सदी में कई पत्रिकाओं में उपन्यासों को धारावाहिक की शक्ल में छापा जाता था। इससे पाठकों को उस पत्रिका का अगला अंक खरीदने के लिये प्रोत्साहित किया जा सकता था।
1920 के दशक में इंग्लैंड में लोकप्रिय साहित्य को शिलिंग सीरीज के नाम से सस्ते दर पर बेचा जाता था।
किताब के ऊपर लगने वाली जिल्द का प्रचलन बीसवीं सदी में शुरु हुआ।
1930 के दशक की महा मंदी के प्रभाव से पार पाने के लिए पेपरबैक संस्करण निकाला गया जो कि सस्ता हुआ करता था।
भारत में प्रिंटिंग की दुनिया
भारत में प्रिंटिंग प्रेस सबसे पहले सोलहवीं सदी के मध्य में पुर्तगाली धर्मप्रचारकों द्वारा लाया गया। भारत में छपने वाली पहली किताबें कोंकणी भाषा में थी। 1674 तक कोंकणी और कन्नड़ भाषाओं में लगभग 50 किताबें छप चुकी थीं। तमिल भाषा की पहली पुस्तक को कैथोलिक पादरियों ने कोचीन में 1759 में छापा था। उन्होंने मलयालय भाषा की पहली पुस्तक को 1713 में छापा था।
1780 से बंगाल गैजेट को जेम्स ऑगस्टस हिकी ने संपादित करना शुरु किया। यह एक साप्ताहिक पत्रिका थी। हिकी ने कम्पनी के बड़े अधिकारियों के बारे में गॉशिप भी छापे। गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स ने हिकी को इसके लिये सजा भी दी। उसके बाद वारेन हेस्टिंग्स ने सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त अखबारों को प्रोत्साहन दिया ताकि सरकार की छवि ठीक की जा सके।
बंगाल गैजेट ही पहला भारतीय अखबार था; जिसे गंगाधर भट्टाचार्य ने प्रकाशित करना शुरु किया था।
प्रिंट संस्कृति से भारत में धार्मिक, सामाजिक और राजनैतिक मुद्दों पर बहस शुरु करने में मदद मिली। लोग कई धार्मिक रिवाजों के प्रचलन की आलोचना करने लगे। 1821 से राममोहन राय ने संबाद कौमुदी प्रकाशित करना शुरु किया। इस पत्रिका में हिंदू धर्म के रूढ़िवादी विचारों की आलोचना होती थी। ऐसी आलोचना को काटने के लिए हिंदू रूढ़ीवादियों ने समाचार चंद्रिका नामक पत्रिका निकालना शुरु किया। 1822 में फारसी में दो अखबार शुरु हुए जिनके नाम थे जाम-ए-जहाँ-नामा और शम्सुल अखबार। उसी साल एक गुजराती अखबार भी शुरु हुआ जिसका नाम था बम्बई समाचार।
उत्तरी भारत के उलेमाओं ने सस्ते लिथोग्राफी प्रेस का इस्तेमाल करते हुए धर्मग्रंथों के उर्दू और फारसी अनुवाद छापने शुरु किये। उन्होंने धार्मिक अखबार और गुटके भी निकाले। देवबंद सेमिनरी की स्थापना 1867 में हुई। इस सेमिनरी ने एक मुसलमान के जीवन में सही आचार विचार को लेकर हजारों हजार फतवे छापने शुरु किये।
1810 में कलकत्ता में तुलसीदास द्वारा लिखित रामचरितमानस को छापा गया। 1880 के दशक से लखनऊ के नवल किशोर प्रेस और बम्बई के श्री वेंकटेश्वर प्रेस ने आम बोलचाल की भाषाओं में धार्मिक ग्रंथों को छापना शुरु किया।
इस तरह से प्रिंट के कारण धार्मिक ग्रंथ आम लोगों की पहुँच में आ गये। इससे नई राजनैतिक बहस की रूपरेखा निर्धारित होने लगी। प्रिंट के कारण भारत के एक हिस्से का समाचार दूसरे हिस्से के लोगों तक भी पहुँचने लगा। इससे लोग एक दूसरे के करीब भी आने लगे।
प्रकाशन के नये रूप
शुरु शुरु में भारत के लोगों को यूरोप के लेखकों के उपन्यास ही पढ़ने को मिलते थे। वे उपन्यास यूरोप के परिवेश में लिखे होते थे। इसलिए यहाँ के लोग उन उपन्यासों से तारतम्य नहीं बिठा पाते थे। बाद में भारतीय परिवेश पर लिखने वाले लेखक भी उदित हुए। ऐसे उपन्यासों के चरित्र और भाव से पाठक बेहतर ढ़ंग से अपने आप को जोड़ सकते थे। लेखन की नई नई विधाएँ भी सामने आने लगीं; जैसे कि गीत, लघु कहानियाँ, राजनैतिक और सामाजिक मुद्दों पर निबंध, आदि।
उन्नीसवीं सदी के अंत तक एक नई तरह की दृश्य संस्कृति भी रूप ले रही थी। कई प्रिंटिंग प्रेस चित्रों की नकलें भी भारी संख्या में छापने लगे। राजा रवि वर्मा जैसे चित्रकारों की कलाकृतियों को अब जन समुदाय के लिये प्रिंट किया जाने लगा।
1870 आते आते पत्रिकाओं और अखबारों में कार्टून भी छपने लगे। ऐसे कार्टून तत्कालीन सामाजिक और राजनैतिक मुद्दों पर कटाक्ष करते थे।
प्रिंट और महिलाएँ
कई लेखकों ने महिलाओं के जीवन और संवेदनाओं पर लिखना शुरु किया। इससे मध्यम वर्ग की महिलाओं में पढ़ने की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ी। कई ऐसे पुरुष आगे आये जो स्त्री शिक्षा पर जोर देते थे। कुछ महिलाओं ने घर पर रहकर ही शिक्षा प्राप्त की, जबकि कुछ अन्य महिलाओं ने स्कूल जाना भी शुरु किया।
लेकिन पुरातनपंथी हिंदू और मुसलमान अभी भी स्त्री शिक्षा के खिलाफ थे। उनका मानना था कि शिक्षा से लड़कियों के दिमाग पर बुरे प्रभाव पड़ेंगे। लोग चाहते थे कि उनकी बेटियाँ धार्मिक ग्रंथ पढ़ें लेकिन उसके अलावा और कुछ न पढ़ें।
उर्दू, तमिल, बंगाली और मराठी में प्रिंट संस्कृति का विकास पहले ही हो चुका था, लेकिन हिंदी में ठीक तरीके से प्रिंटिंग की शुरुआत 1870 के दशक में ही हो पाई थी।
प्रिंट और गरीब लोग
मद्रास के शहरों में उन्नीसवीं सदी में सस्ती और छोटी किताबें आ चुकी थीं। इन किताबों को चौराहों पर बेचा जाता था ताकि गरीब लोग भी उन्हें खरीद सकें। बीसवीं सदी के शुरुआत से सार्वजनिक पुस्तकालयों की स्थापना शुरु हुई। इन पुस्तकालयों के कारण लोगों तक किताबों की पहुँच बढ़ने लगी। कई अमीर लोग पुस्तकालय बनाने लगे ताकि उनके क्षेत्र में उनकी प्रतिष्ठा बढ़ सके।
प्रिंट और सेंसर
1798 के पहले तक उपनिवेशी शासक सेंसर को लेकर बहुत गंभीर नहीं थे। शुरु में जो भी थोड़े बहुत नियंत्रण लगाये जाते थे वे भारत में रहने वाले ऐसे अंग्रेजों पर लगाये जाते थे जो कम्पनी के कुशासन की आलोचना करते थे।
1857 के विद्रोह के बाद प्रेस की स्वतंत्रत के प्रति अंग्रेजी हुकूमत का रवैया बदलने लगा। वर्नाकुलर प्रेस एक्ट को 1878 में पारित किया गया। इस कानून ने सरकार को वर्नाकुलर प्रेस में समाचार और संपादकीय पर सेंसर लगाने के लिए अकूत शक्ति प्रदान की। राजद्रोही रिपोर्ट छपने पर अखबार को चेतावनी दी जाती थी। यदि उस चेतावनी का कोई प्रभाव नहीं पड़ता था तो फिर ऐसी भी संभावना होती थी कि प्रेस को बंद कर दिया जाये और प्रिंटिंग मशीनों को जब्त कर लिया जाये।
NCERT Solution
प्रश्न:1 निम्नलिखित के कारण दें:
प्रश्न:a) वुडब्लॉक प्रिंट या तख्ती की छ्पाई यूरोप में 1295 के बाद आई।
उत्तर: मार्को पोलो 1295 में जब चीन से वापस लौटा तो अपने साथ वुडब्लॉक प्रिंटिंग की जानकारी लेकर आया। इसलिए यूरोप में वुडब्लॉक प्रिंटिंग 1295 के बाद आई।
प्रश्न:b) मार्टिन लूथर मुद्रण के पक्ष में था और उसने इसकी खुलेआम प्रशंसा की।
उत्तर: मार्टिन लूथर ने रोमन कैथलिक चर्च की जो आलोचना की थी वह प्रिंट के जरिये ही जनमानस के एक बड़े हिस्से तक पहुँच पाई। इसलिए मार्टिन लूथर मुद्रण के पक्ष में था और उसने इसकी खुलेआम प्रशंसा की।
प्रश्न:c) रोमन कैथलिक चर्च ने सोलहवीं सदी के मध्य से प्रतिबंधित किताबों की सूची रखनी शुरु कर दी।
उत्तर: प्रिंट के कारण बाइबिल की नई व्याख्या लोगों तक पहुँची और लोग चर्च की शक्ति पर सवाल उठाने लगे। इसलिए रोमन कैथलिक चर्च ने सोलहवीं सदी के मध्य से प्रतिबंधित किताबों की सूची रखनी शुरु कर दी।
प्रश्न:d) महात्मा गांधी ने कहा कि स्वराज की लड़ाई दरअसल अभिव्यक्ति, प्रेस, और सामूहिकता के लिए लड़ाई है।
उत्तर: सरकारें जिस तरह से प्रिंट को नियंत्रित करने और कुचलने की कोशिश करती हैं उससे प्रिंट की शक्ति का अंदाजा हो जाता है। अंग्रेजी हुकूमत ने भारत में छपने वाली किताबों और अखबारों पर लगातार नजर रखनी शुरु कर दी और प्रेस को नियंत्रण में लाने के लिए कई कानून भी बनाए। इसलिए गांधी जी ने कहा कि स्वराज की लड़ाई दरअसल अभिव्यक्ति, प्रेस, और सामूहिकता के लिए लड़ाई है।
प्रश्न:2 छोटी टिप्पणी में इनके बारे में बताएँ:
प्रश्न:a) गुटेंबर्ग प्रेस
उत्तर: गुटेनबर्ग किसी व्यापारी के बेटे थे। अपने बचपन से ही उन्होंने जैतून और शराब की प्रेस देखी थी। उसने पत्थरों पर पॉलिस करने की कला भी सीखी थी। उसे सोने के जेवर बनाने में भी महारत हासिल थी और वह लेड के साँचे भी बनाता था जिनका इस्तेमाल सस्ते जेवरों को ढ़ालने के लिए किया जाता था।
इस तरह से गुटेनबर्ग के पास हर वह जरूरी ज्ञान था जिसका इस्तेमाल करके उसने प्रिंटिंग टेक्नॉलोजी को और बेहतर बनाया। उसने जैतून के प्रेस को अपने प्रिंटिंग प्रेस का मॉडल बनाया और अपने साँचों का इस्तेमाल करके छापने के लिए अक्षर बनाये। 1448 इसवी तक गुटेनबर्ग ने अपने प्रिंटिंग प्रेस को दुरुस्त बना लिया था। उसने अपने प्रेस में सबसे पहले बाइबिल को छापा।
प्रश्न:b) छपी किताब को लेकर इरैस्मस के विचार
उत्तर: इरैस्मस का मानना था कि बौद्धिक ज्ञान की अस्मिता के लिए किताबों का छपना अच्छी बात नहीं थी। उसका सोचना था कि प्रिंट के कारण बाजार में घटिया किताबें भर जाएँगी जिससे समाज को लाभ के स्थान पर घाटा अधिक होगा। घटिया किताबों की भीड़ में अच्छी रचना का अस्तित्व ही मिट जायेगा।
प्रश्न:c) वर्नाकुलर या देसी प्रेस एक्ट
उत्तर: वर्नाकुलर प्रेस एक्ट को 1878 में पारित किया गया। इस कानून ने सरकार को वर्नाकुलर प्रेस में समाचार और संपादकीय पर सेंसर लगाने के लिए अकूत शक्ति प्रदान की। राजद्रोही रिपोर्ट छपने पर अखबार को चेतावनी दी जाती थी। यदि उस चेतावनी का कोई प्रभाव नहीं पड़ता हा तो फिर ऐसी भी संभावना होती थी कि प्रेस को बंद कर दिया जाये और प्रिंटिंग मशीनों को जब्त कर लिया जाये।
प्रश्न:3 उन्नीसवीं सदी में भारत में मुद्रण संस्कृति के प्रसार का इनके लिए क्या मतलब था:
प्रश्न:a) महिलाएँ
उत्तर: महिलाओं के जीवन और संवेदनाओं पर कई लेखकों ने लिखना शुरु किया। इसके कारण मध्यम वर्ग की महिलाओं में पढ़ने की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ी। कई ऐसे पिता या पति आगे आये जो स्त्री शिक्षा पर जोर देते थे। कुछ महिलाओं ने घर पर रहकर ही शिक्षा प्राप्त की, जबकि कुछ अन्य महिलाओं ने स्कूल जाना भी शुरु किया।
लेकिन पुरातनपंथी हिंदू और मुसलमान अभी भी स्त्री शिक्षा के खिलाफ थे। उनका मानना था कि शिक्षा से लड़कियों के दिमाग पर बुरे प्रभाव पड़ेंगे। लोग चाहते थे कि उनकी बेटियाँ धार्मिक ग्रंथ पढ़ें लेकिन उसके अलावा और कुछ न पढ़ें।
प्रश्न:b) गरीब जनता
उत्तर: मद्रास के शहरों में उन्नीसवीं सदी में सस्ती और छोटी किताबें आ चुकी थीं। इन किताबों को चौराहों पर बेचा जाता था ताकि गरीब लोग भी उन्हें खरीद सकें। बीसवीं सदी के शुरुआत से सार्वजनिक पुस्तकालयों की स्थापना शुरु हुई जिसके कारण लोगों तक किताबों की पहुँच बढ़ने लगी। कई अमीर लोग अपने क्षेत्र में अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाने के उद्देश्य से पुस्तकालय बनाने लगे। इससे गरीब लोग भी किताबें पढ़ने लगे और बदलती दुनिया के बारे में जानने लगे। इससे इतना फायदा हुआ कि कई मजदूरों ने भी किताबें लिखीं।
प्रश्न:c) सुधारक
उत्तर: प्रिंट ने समाज सुधारकों का काम आसान कर दिया। उनके नये विचार अब आसानी से जन मानस तक पहुँच सकते थे। पुरानी मान्यताओं पर खुल कर बहस संभव हो गया। इससे समाज को काफी फायदा हुआ।
प्रश्न:4अठारहवीं सदी के यूरोप में कुछ लोगों को क्यों ऐसा लगता था कि मुद्रण संस्कृति से निरंकुशवाद का अंत, और ज्ञानोदय होगा?
उत्तर: प्रिंट के कारण ज्ञानोदय के विचारकों के विचार लोकप्रिय हुए। इन विचारकों ने परंपरा, अंधविश्वास और निरंकुशवाद की कड़ी आलोचना की। प्रिंट के कारण संवाद और वाद-विवाद की नई संस्कृति का जन्म हुआ। अब आम आदमी भी मूल्यों, संस्थाओं और प्रचलनों पर विवाद करने लगा और स्थापित मान्यताओं पर सवाल करने लगा। इन सब बदलावों से कुछ लोगों को लगने लगा त्था कि मुद्रण संस्कृति से निरंकुशवाद का अंत, और ज्ञानोदय होगा।
प्रश्न:5 कुछ लोग किताबों की सुलभता को लेकर चिंतित क्यों थे? यूरोप और भारत से एक एक उदाहरण लेकर समझाएँ।
उत्तर: रूढ़िवादी लोगों को लगता था कि किताबें पढ़ने से लोगों के दिमाग फिर जाएँगे। यूरोप के कैथलिक चर्च को लगता था कि लोग उसकी अवहेलना करना शुरु कर देंगे। भारत के रूढ़िवादियों को लगता था कि लोग पारंपरिक मान्यताओं को तोड़ने लगेंगे और उससे सामाजिक विध्वंस हो जायेगा। इसलिए ऐसे लोग किताबों की सुलभता को लेकर चिंतित थे।
प्रश्न:6 उन्नीसवीं सदी में भारत में गरीब जनता पर मुद्रण संस्कृति का क्या असर हुआ?
उत्तर: मद्रास के शहरों में उन्नीसवीं सदी में सस्ती और छोटी किताबें आ चुकी थीं। इन किताबों को चौराहों पर बेचा जाता था ताकि गरीब लोग भी उन्हें खरीद सकें। बीसवीं सदी के शुरुआत से सार्वजनिक पुस्तकालयों की स्थापना शुरु हुई जिसके कारण लोगों तक किताबों की पहुँच बढ़ने लगी। कई अमीर लोग अपने क्षेत्र में अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाने के उद्देश्य से पुस्तकालय बनाने लगे। इससे गरीब लोग भी किताबें पढ़ने लगे और बदलती दुनिया के बारे में जानने लगे। इससे इतना फायदा हुआ कि कई मजदूरों ने भी किताबें लिखीं।
प्रश्न:7 मुद्रण संस्कृति ने भारत में राष्ट्रवाद के विकास में क्या मदद की?
उत्तर: प्रिंट संस्कृति से लोगों में संवाद की संस्कृति का विकास हुआ। समाज सुधार के नये विचारों को अब बेहतर तरीके से लोगों तक पहुँचाया जा सकता था। गांधीजी ने अखबारों के माध्यम से स्वदेशी के अर्थ को अधिक शक्तिशाली तरीके से व्यक्त करना शुरु किया। भारत में स्थानीय बोलचाल की भाषाओं में कई अखबार प्रकाशित होने लगे। इससे भारत के जनमानस में राष्ट्रवाद की भावना को फैलाने में काफी मदद मिली। कई दमनकारी नीतियों के बावजूद प्रिंट संस्कृति एक ऐसा आंदोलन था जिसे रोका नहीं जा सकता था।
Extra Questions Answers
प्रश्न:1 प्रिंट टेक्नॉलोजी का विकास सबसे पहले कहाँ हुआ था?
उत्तर: प्रिंट टेक्नॉलोजी का विकास सबसे पहले चीन, जापान और कोरिया में हुआ।
प्रश्न:2 एकॉर्डियन बुक से आप क्या समझते हैं?
उत्तर: शुरुआत में कागज पतले और झिर्रीदार होते थे। ऐसे कागज पर दोनों तरफ छपाई करना संभव नहीं था। कागज के दोनों सिरों को टाँके लगाकर फिर बाकी कागज को मोड़कर एकॉर्डियन बुक बनाई जाती थी।
प्रश्न:3 यूरोप में प्रिंट टेक्नॉलोजी कैसे आई?
उत्तर: मार्को पोलो जब 1295 में चीन से लौटा तो अपने साथ ब्लॉक प्रिंटिंग की जानकारी लेकर आया। इस तरह इटली में प्रिंटिंग की शुरुआत हुई। उसके बाद प्रिंट टेक्नॉलोजी यूरोप के अन्य भागों में भी फैल गई।
प्रश्न:4 गुटेनबर्ग में क्या विशेषता थी कि उसने प्रिंटिंग प्रेस बनाया?
उत्तर: गुटेनबर्ग किसी व्यापारी के बेटे थे। अपने बचपन से ही उन्होंने जैतून और शराब की प्रेस देखी थी। उसने पत्थरों पर पॉलिस करने की कला भी सीखी थी। उसे सोने के जेवर बनाने में भी महारत हासिल थी और वह लेड के साँचे भी बनाता था जिनका इस्तेमाल सस्ते जेवरों को ढ़ालने के लिए किया जाता था। इस तरह से गुटेनबर्ग के पास हर वह जरूरी ज्ञान था जिसका इस्तेमाल करके उसने प्रिंटिंग टेक्नॉलोजी को और बेहतर बनाया।
प्रश्न:5 प्रिंट टेक्नॉलोजी ने किस तरह से धार्मिक विवाद को जन्म दिया?
उत्तर: प्रिंट के आने से नये तरह के बहस और विवाद को अवसर मिलने लगे। धर्म के कुछ स्थापित मान्यताओं पर सवाल उठने लगे। पुरातनपंथी लोगों को लगता था कि इससे पुरानी व्यवस्था के लिए चुनौती खड़ी हो रही थी। ईसाई धर्म की प्रोटेस्टैंट क्राँति भी प्रिंट संस्कृति के कारण ही संभव हो पाई थी। धार्मिक मान्यताओं पर सवाल उठाने वाले नये विचारों से रोम के चर्च को परेशानी होने लगी।
प्रश्न:6 प्रिंट टेक्नॉलोजी आने से भारत में क्या असर हुआ?
उत्तर: प्रिंट संस्कृति से भारत में धार्मिक, सामाजिक और राजनैतिक मुद्दों पर बहस शुरु करने में मदद मिली। लोग कई धार्मिक रिवाजों के प्रचलन की आलोचना करने लगे। इससे नई राजनैतिक बहस की रूपरेखा निर्धारित होने लगी। प्रिंट के कारण भारत के एक हिस्से का समाचार दूसरे हिस्से के लोगों तक भी पहुँचने लगा। इससे लोग एक दूसरे के करीब भी आने लगे।
प्रश्न:7 भारतीय उपन्यासकारों का उदय कैसे हुआ?
उत्तर: शुरु शुरु में भारत के लोगों को यूरोप के लेखकों के उपन्यास ही पढ़ने को मिलते थे। वे उपन्यास यूरोप के परिवेश में लिखे होते थे। इसलिए यहाँ के लोग उन उपन्यासों से तारतम्य नहीं बिठा पाते थे। बाद में भारतीय परिवेश पर लिखने वाले लेखक भी उदित हुए। ऐसे उपन्यासों के चरित्र और भाव से पाठक बेहतर ढ़ंग से अपने आप को जोड़ सकते थे।
प्रश्न:8 भारत में सेंसर की शुरुआत कैसे हुई?
उत्तर: 1857 के विद्रोह के बाद प्रेस की स्वतंत्रत के प्रति अंग्रेजी हुकूमत का रवैया बदलने लगा। वर्नाकुलर प्रेस एक्ट को 1878 में पारित किया गया। इस कानून ने सरकार को वर्नाकुलर प्रेस में समाचार और संपादकीय पर सेंसर लगाने के लिए अकूत शक्ति प्रदान की। राजद्रोही रिपोर्ट छपने पर अखबार को चेतावनी दी जाती थी। यदि उस चेतावनी का कोई प्रभाव नहीं पड़ता था तो फिर ऐसी भी संभावना होती थी कि प्रेस को बंद कर दिया जाये और प्रिंटिंग मशीनों को जब्त कर लिया जाये।
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