3.भारत में राष्ट्रवाद
इस अध्याय की मुख्य बातें:
- सत्याग्रह का मतलब
- असहयोग आंदोलन
- दांडी मार्च
- विभिन्न लोगों के लिए स्वराज के विभिन्न मतलब
- दलितों और मुसलमानों की भागीदारी
प्रथम विश्व युद्ध
प्रथम विश्व युद्ध के प्रभाव: हालांकि भारत प्रत्यक्ष रूप से प्रथम विश्व युद्ध में शामिल नहीं था लेकिन उस युद्ध में इंगलैंड के शामिल होने के कारण भारत पर भी असर पड़ा था। युद्ध के कारण इंगलैंड के रक्षा संबंधी खर्चे में बढ़ोतरी हुई थी। उस खर्चे को पूरा करने के लिये कर्ज लिये गये और टैक्स बढ़ाए गये। अंग्रेजी सरकार ने कस्टम ड्युटी और इनकम टैक्स को बढ़ाया ताकि अतिरिक्त राजस्व संग्रह किया जा सके। युद्ध के दौरान चीजों की कमतें बढ़ गईं। 1913 से 1918 के बीच अधिकतर चीजों के दाम दोगुने हो गये। इससे आम आदमी की मुश्किलें बढ़ गईं। लोगों को जबरन सेना में भर्ती किया गया। इससे ग्रामीण इलाकों में काफी आक्रोश था।
भारत के कई भागों में उपज खराब होने के कारण भोजन की कमी हो गई। इंफ्लूएंजा की महामारी ने समस्या को और गंभीर कर दिया। 1921 की जनगणना के अनुसार, अकाल और महामारी के कारण 120 लाख से 130 लाख तक लोग मारे गए।
सत्याग्रह का अर्थ: महात्मा गांधी ने जनांदोलन का एक नायाब तरीका अपनाया जिसका नाम था सत्याग्रह। सत्याग्रह का सिद्धांत कहता था कि यदि कोई सही मकसद के लिये लड़ाई लड़ रहा हो तो उसे अपने ऊपर अत्याचार करने वाले से लड़ने के लिये ताकत की जरूरत नहीं होती है। गांधीजी का मानना था कि एक सत्याग्रही अपनी लड़ाई अहिंसा के द्वारा ही जीत सकता है।
गाँधीजी द्वारा आयोजित शुरु के कुछ सत्याग्रह आंदोलन:
- 1916 में चंपारण में किसान आंदोलन।
- 1917 में खेड़ा का किसान आंदोलन।
- 1918 में अहमदाबाद के मिल मजदूरों का आंदोलन।
रॉलैट ऐक्ट (1919):
रॉलैट ऐक्ट को इंपीरियल लेगिस्लेटिव काउंसिल ने 1919 में पारित किया था। भारतीय सदस्यों के विरोध के बावजूद यह ऐक्ट पारित हो गया था। इस ऐक्ट ने सरकार को राजनैतिक गतिविधियों को कुचलने के लिये असीम शक्ति दे दी थी। इस ऐक्ट के मुताबिक बिना ट्रायल के ही राजनैतिक कैदियों को दो साल तक के लिये बंदी बनाया जा सकता था।
रॉलैट ऐक्ट के विरोध में गांधीजी ने 6 अप्रैल 1919 को राष्ट्रव्यापी आंदोलन की शुरुआत की। गांधीजी ने हड़ताल का आह्वान किया जिसे भारी समर्थन मिला। विभिन्न शहरों में लोग इसके समर्थन में निकल पड़े। दुकानें बंद हो गईं और रेल कारखानों के मजदूर हड़ताल पर चले गये। अंग्रेजी हुकूमत ने इस आंदोलन के खिलाफ कठोर कदम उठाने का निर्णय लिया। कई स्थानीय नेताओं को बंदी बना लिया गया। महात्मा गांधी को दिल्ली में आने से रोका गया।
जलियांवाला बाग:
10 अप्रैल 1919 को अमृतसर में शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर पुलिस ने गोली चलाई। इससे गुस्साए लोगों ने जगह-जगह पर सरकारी संस्थानों पर आक्रमण किया। अमृतसर में मार्शल लॉ लागू कर दिया गया। अमृतसर की कमान जनरल डायर के हाथों में सौंप दी गई।
13 अप्रैल को पंजाब में बैसाखी का त्योहार मनाया जा रहा था। ग्रामीणों का एक समूह जलियांवाला बाग में लगे एक मेले में शरीक होने आया था। वह बाग चारों तरफ से बंद था और निकलने के रास्ते संकीर्ण थे। जनरल डायर ने निकलने के रास्ते बंद करवा दिये और भीड़ पर गोली चलाने का आदेश दिया। उस गोलीकांड में सैंकड़ो लोग मारे गये। इससे चारों तरफ हिंसा फैल गई। महात्मा गांधी हिंसा नहीं चाहते थे इसलिये उन्होंने आंदोलन वापस ले लिया।
आंदोलन के विस्तार की आवश्यकता:
रॉलैट सत्याग्रह मुख्य रूप से शहरों तक ही सीमित था। महात्मा गांधी को महसूस हुआ कि भारत में आंदोलन का विस्तार होना चाहिए। उनको लगता था कि ऐसा तभी संभव था जब हिंदू और मुसलमान एक मंच पर आ जाएँ।
खिलाफत आंदोलन:
खिलाफत के मुद्दे ने गांधीजी एक ऐसा अवसर दिया जिससे हिंदू और मुसलमानों को एक मंच पर लाया जा सकता था। प्रथम विश्व युद्ध में तुर्की की कराड़ी हार के बाद ऑटोमन के शासक पर कड़े संधि समझौते की अफवाह फैल चुकी थी। ऑटोमन का शासक मुस्लिम समुदाय का खलीफा भी हुआ करता था। खलीफा को समर्थन देने के लिये बंबई में मार्च 1919 में एक खिलाफत कमेटी बनाई गई। इस कमेटी के नेता थे दो भाई जिनके नाम थे मुहम्मद अली और शौकत अली। उनकी इच्छा थी कि महात्मा गांधी इस मुद्दे पर आंदोलन करें। 1920 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में खिलाफत के समर्थन में और स्वराज के लिये एक अवज्ञा आंदोलन शुरु करने का प्रस्ताव पारित हुआ।
असहयोग आंदोलन
महात्मा गांधी ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक स्वराज (1909) में लिखा कि भारत में अंग्रेजी राज इसलिए स्थापित हो पाया क्योंकि भारत के लोगों ने उनके साथ सहयोग किया। भारतीय लोगों के सहयोग के कारण अंग्रेज यहाँ पर हुकूमत करते रहे। यदि भारत के लोग सहयोग करना बंद कर दें, तो अंग्रेजी राज एक साल के अंदर चरमरा जायेगा और स्वराज आ जायेगा। गांधीजी को पूरा विश्वास था कि यदि भारतीय लोग अंग्रेजों से सहयोग करना बंद कर देंगे तो अंग्रेजों के पास भारत को छोड़कर जाने के सिवा और कोई रास्ता नहीं बचेगा।
असहयोग आंदोलन के कुछ प्रस्ताव:
- अंग्रेजी सरकार द्वारा प्रदान की गई उपाधियों को वापस करना।
- सिविल सर्विस, सेना, पुलिस, कोर्ट, लेजिस्लेटिव काउंसिल और स्कूलों का बहिष्कार।
- विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार।
- यदि सरकार अपनी दमनकारी नीतियों से बाज न आये, तो संपूर्ण अवज्ञा आंदोलन शुरु करना।
आंदोलन के विभिन्न स्वरूप
असहयोग-खिलाफत आंदोलन की शुरुआत जनवरी 1921 में हुई थी। इस आंदोलन में समाज के विभिन्न वर्गों ने शिरकत की थी और हर वर्ग की अपनी-अपनी महत्वाकांक्षाएँ थीं। सबने स्वराज के आह्वान का सम्मान किया था, लेकिन विभिन्न लोगों के लिए इसके विभिन्न अर्थ थे।
शहरों में आंदोलन:
- शहरों में मध्य-वर्ग से आंदोलन में अच्छी भागीदारी हुई।
- हजारों छात्रों ने सरकारी स्कूल और कॉलेज छोड़ दिए, शिक्षकों ने इस्तीफा दे दिया और वकीलों ने अपनी वकालत छोड़ दी।
- मद्रास को छोड़कर अधिकांश राज्यों में काउंसिल के चुनावों का बहिष्कार किया गया। मद्रास की जस्टिस पार्टी में ऐसे लोग थे जो ब्राह्मण नहीं थे। उनके लिए काउंसिल के चुनाव एक ऐसा माध्यम थे जिससे उनके हाथ में कुछ सत्ता आ जाती; ऐसी सत्ता जिसपर केवल ब्राह्मणों का निय़ंत्रण था।
- विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार हुआ, शराब की दुकानों का घेराव किया गया और विदेशी कपड़ों की होली जलाई गई। 1921 से 1922 तक विदेशी कपड़ों का आयात घटकर आधा हो गया। आयात 102 करोड़ रुपए से घटकर 57 करोड़ रह गया। विदेशी कपड़ों के बहिष्कार से भारत में बने कपड़ों की मांग बढ़ गई।
आंदोलन में सुस्ती आने के कारण:
- मिल में बने कपड़ों की तुलना में खादी महँगी पड़ती थी। गरीब लोग खादी को खरीदने में समर्थ नहीं थे।
- अंग्रेजी संस्थानों के बहिष्कार से विकल्प के तौर पर भारतीय संस्थानों की कमी की समस्या उत्पन्न हो गई। ऐसे संस्थान बहुत धीरे-धीरे पनप पा रहे थे। शिक्षक और छात्र दोबारा स्कूलों में जाने लगे। इसी तरह वकील भी अपने काम पर लौटने लगे।
- गाँवों में विद्रोह: शहरों के बाद गाँवों में भी असहयोग आंदोलन फैलने लगा। भारत के विभिन्न भागों के किसान और आदिवासी भी इस आंदोलन में शामिल हो गए।
अवध
अवध में बाबा रामचंद्र ने किसान आंदोलन की अगुवाई की। वह एक सन्यासी थे जिन्होंने पहले फिजी में बंधुआ मजदूर के तौर पर काम किया था। तालुकदारों और जमींदारों से अधिक मालगुजारी मांगी जा रही थी। उसके विरोध में किसान उठ खडे हुए थे। किसानों की मांग थी कि मालगुजारी कम कर दी जाए, बेगार को समाप्त किया जाए और कठोर जमींदारों का सामाजिक बहिष्कार किया जाए।
जून 1920 से जवाहरलाल नेहरू ने गाँवों का दौरा करना शुरु कर दिया था। वह किसानों की समस्या समझना चाहते थे। अक्तूबर में अवध किसान सभा का गठन हुआ। इसकी अगुआई जवाहरलाल नेहरू, बाबा रामचंद्र और कुछ अन्य लोग कर रहे थे। अपने आप को किसानों के आंदोलन से जोड़कर, कांग्रेस अवध के आंदोलन को एक व्यापक असहयोग आंदोलन के साथ जोड़ने में सफल हो पाई थी। कई स्थानों पर लोगों ने महात्मा गाँधी का नाम लेकर लगान देना बंद कर दिया था।
आदिवासी किसान
आदिवासी किसानों ने महात्मा गाँधी के स्वराज का अपने ही ढ़ंग से मतलब निकाला था। जंगल से संबंधित नये कानून उनकी आजीविका के लिए खतरा साबित हो रहे थे। उन्हें जंगल में पशु चराने, और वहाँ से फल और लकड़ियाँ लेने से रोका जाता था। सरकार उन्हें सड़क निर्माण में बेगार करने के लिए बाधित करती थी।
आदिवासी क्षेत्रों से कई विद्रोही हिंसक हो गए और कई बार अंग्रेजी अफसरों के विरुद्ध गुरिल्ला युद्ध भी छेड़ दिया।
बागानों में स्वराज
चाय बागानों में काम करने वाले मजदूरों की हालत खराब थी। इंडियन एमिग्रेशन ऐक्ट 1859 के अनुसार, उन मजदूरों को बिना अनुमति के बागान छोड़कर जाना मना था। असहयोग आंदोलन से प्रभावित होकर कई मजदूरों ने अधिकारियों की बात मानने से इंकार कर दिया। बागानों को छोड़कर वे अपने घरों की तरफ चल पड़े। लेकिन रेलवे और स्टीमर की हड़ताल के कारण वे बीच में ही फंस गए। पुलिस ने उन्हें पकड़ लिया और बुरी तरह पीटा।
कई विश्लेषक ये मानते हैं कि कांग्रेस ने आंदोलन के सही मतलब को ठीक तरीके से नहीं समझाया था। लोगों ने अपने-अपने तरीके से इसका मतलब निकाला था। उनके लिए स्वराज का मतलब था उनकी हर समस्या का अंत। लेकिन समाज के विभिन्न वर्गों के लोगों ने गाँधी जी का नाम जपना शुरु कर दिया और स्वतंत्र भारत के नारे लगाने शुरु कर दिए। ऐसा कहा जा सकता है, कि वे अपनी समझ से परे उस विस्तृत आंदोलन से किसी न किसी रूप में जुड़ने की कोशिश कर रहे थे।
सविनय अवज्ञा आंदोलन
1921 के अंत आते आते, कई जगहों पर आंदोलन हिंसक रूप लेने लगा था। फरवरी 1922 में गाँधीजी ने असहयोग आंदोलन को वापस लेने का निर्णय ले लिया। कांग्रेस के कुछ नेता भी जनांदोलन से थक से गए थे। वे राज्यों के काउंसिल के चुनावों में हिस्सा लेना चाहते थे। राज्य के काउंसिलों का गठन गवर्नमेंट ऑफ इंडिया ऐक्ट 1919 के तहत हुआ था। कुछ नेताओं का मानना था सिस्टम का भाग बनकर अंग्रेजी नीतियों विरोध करना भी महत्वपूर्ण था।
मोतीलाल नेहरू और सी आर दास जैसे पुराने नेताओं ने कांग्रेस के भीतर ही स्वराज पार्टी बनाई और काउंसिल की राजनीति में भागीदारी की वकालत करने लगे।
सुभाष चंद्र बोस और जवाहरलाल नेहरु जैसे नए नेता जनांदोलन और पूर्ण स्वराज के पक्ष में थे।
यह कांग्रेस में अंतर्द्वंद और अंतर्विरोध का एक काल था। इसी काल में ग्रेट डिप्रेशन का असर भी भारत में महसूस किया जाने लगा। 1926 से खाद्यान्नों की कीमत गिरने लगी। 1930 में कीमतें मुँह के बल गिरीं। ग्रेट डिप्रेशन के प्रभाव के कारण पूरे देश में तबाही का माहौल था।
साइमन कमीशन
अंग्रेजी सरकार ने सर जॉन साइमन की अध्यक्षता में एक वैधानिक कमीशन गठित किया। इस कमीशन को भारत में संवैधानिक सिस्टम के कार्य का मूल्यांकन करने और जरूरी बदलाव के सुझाव देने के लिए बनाया गया था। इस कमीशन में केवल अंग्रेज सदस्य ही थे, एक भी भारतीय सदस्य नहीं था। इसलिए भारतीय नेताओं ने इसका विरोध किया।
साइमन कमीश 1928 में भारत आया। ‘साइमन वापस जाओ (साइमन गो बैक)’ के नारों के साथ इसका स्वागत हुआ। विद्रोह में सभी पार्टियाँ शामिल हुईं। अक्तूबर 1929 में लॉर्ड इरविन ने भारत के लिये ‘डॉमिनियन स्टैटस’ की ओर इशारा किया था लेकिन इसकी समय सीमा नहीं बताई गई। उसने भविष्य के संविधान पर चर्चा करने के लिए एक गोलमेज सम्मेलन का न्योता भी दिया।
उस दौरान कांग्रेस में उग्र नेता प्रभावशाली होते जा रहे थे। वे अंग्रेजों के प्रस्ताव से संतुष्ट नहीं थे। नरम दल के नेता डॉमिनियन स्टैटस के पक्ष में थे। लेकिन कांग्रेस में नरम दल के नेताओं का प्रभाव कम होता जा रहा था।
दिसंबर 1929 में जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में कांग्रेस का लाहौर अधिवेशन हुआ था। इसमें पूर्ण स्वराज के संकल्प को पारित किया गया। 26 जनवरी 1930 को स्वाधीनता दिवस घोषित किया गया और लोगों से आह्वान किया गया कि वे संपूर्ण स्वाधीनता के लिए संघर्ष करें। लेकिन इस कार्यक्रम को जनता का दबा दबा समर्थन ही प्राप्त हुआ।
फिर यह महात्मा गाँधी पर छोड़ दिया गया कि लोगों के दैनिक जीवन के ठोस मुद्दों के साथ स्वाधीनता जैसे अमूर्त मुद्दे को कैसे जोड़ा जाए।
दांडी मार्च
गांधी जी ने नमक पर लगने वाले टैक्स का विरोध करने का निर्णय लिया। महात्मा गाँधी का विश्वास था कि पूरे देश को एक करने में नमक एक शक्तिशाली हथियार बन सकता था। ज्यादातर लोगों ने इस सोच को हास्यास्पद करार दिया। ऐसे लोगों में अंग्रेज भी शामिल थे। गाँधीजी ने वायसरॉय इरविन को एक चिट्ठी लिखी। उस चिट्ठी में कई अन्य मांगों के साथ नमक कर को समाप्त करने की मांग भी रखी गई थी।
दांडी मार्च या नमक आंदोलन को गाँधीजी ने 12 मार्च 1930 को शुरु किया। उनके साथ 78 अनुयायी भी शामिल थे। उन्होंने 24 दिनों तक चलकर साबरमती से दांडी तक की 240 मील की दूरी तय की। कई अन्य लोग रास्ते में उनके साथ हो लिए। 6 अप्रैल 1930 को गाँधीजी ने मुट्ठी भर नमक उठाकर प्रतीकात्मक रूप से इस कानून को तोड़ा।
दांडी मार्च ने सविनय अवज्ञा आंदोलन की शुरुआत की। देश के विभिन्न भागों में हजारों लोगों ने नमक कानून को तोड़ा। लोगों ने सरकारी नमक कारखानों के सामने धरना प्रदर्शन किया। विदेशी कपड़ों का बहिष्कार किया गया। किसानों ने लगान देने से मना कर दिया। आदिवासियों ने जंगल संबंधी कानूनों का उल्लंघन किया।
अंग्रेजी शासन की प्रतिक्रिया
अंग्रेजी सरकार ने कांग्रेस के नेताओं को बंदी बनाना शुरु किया। इससे कई स्थानों पर हिंसक झड़पें हुईं। लगभग एक महीने बाद गाँधीजी को भी हिरासत में ले लिया गया। लोगों ने अंग्रेजी राज के प्रतीकों पर हमला करना शुरु कर दिया; जैसे पुलिस थाना, नगरपालिका भवन, कोर्ट और रेलवे स्टेशन। सरकार का रवैया बड़ा ही क्रूर था। यहाँ तक की महिलाओं और बच्चों को भी पीटा गया। लगभग एक लाख लोगों को हिरासत में लिया गया।
गोल मेज सम्मेलन
जब आंदोलन हिंसक रूप लेने लगा तो गाँधीजी ने आंदोलन समाप्त कर दिया। 5 मार्च 1931 को गांधीजी ने इरविन के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किया। इसे गाँधी-इरविन पैक्ट कहा जाता है। इसके अनुसार, लंदन में होने वाले गोल मेज सम्मेलन में शामिल होने के लिए गाँधीजी तैयार हो गए। इसके बदले में सरकार राजनैतिक कैदियों को रिहा करने को मान गई।
गाँधीजी दिसंबर 1931 में लंदन गए। लेकिन वार्ता विफल हो गई और गाँधीजी को निराश होकर लौटना पड़ा।
जब गाँधीजी भारत लौटे, तो उन्होंने पाया कि अधिकांश नेता जेल में थे। कांग्रेस को गैरकानूनी घोषित कर दिया गया था। मीटिंग, धरना और प्रदर्शन को रोकने के लिए कई कदम उठाए गए थे। महात्मा गाँधी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन को दोबारा शुरु किया। लेकिन 1934 आते-आते आंदोलन की हवा निकल गई थी।
आंदोलन के बारे में लोगों का मत
किसान
किसानों के लिए स्वराज की लड़ाई का मतलब था अधिक लगान के विरुद्ध लड़ाई। जब 1931 में लगान दरों में सुधार के बगैर ही आंदोलन बंद कर दिया गया तो किसान अत्यधिक निराश थे। जब 1932 में आंदोलन को दोबारा शुरु किया गया तो अधिकांश किसानों ने इसमें भाग लेने से मना कर दिया। छोटे किसान तो यह चाहते थे कि बकाया लगान पूरी तरह से माफ हो जाए। वे अब समाजवादियों और कम्यूनिस्टों द्वारा चलाए जा रहे उग्र आंदोलनों में हिस्सा लेने लगे। ऐसा लगता था कि कांग्रेस धनी जमींदारों को नाराज नहीं करना चाहती थी। इसलिए कांग्रेस और गरीब किसानों के बीच के रिश्ते में कोई सुनिश्चितता नहीं थी।
व्यवसायी
दूसरे विश्व युद्ध के दौरान भारतीय व्यापारियों और उद्योगपतियों का व्यवसाय काफी बढ़ गया था। वे उन अंग्रेजी नीतियों के खिलाफ थे जो व्यवसाय में बाधा डाल रहे थे। वे आयात से सुरक्षा चाहते थे और रुपए और पाउंड का ऐसा विनिमय दर चाहते थे जिससे आयात को रोका जा सके। Indian Industrial and Commercial Congress की स्थापना 1920 में हुई और Federation of the Indian Chamber of Commerce and Industries (FICCI) का गठन 1927 में हुआ। यह व्यवसाय हितों को एक साझा मंच पर लाने के प्रयासों का परिणाम था। व्यापारियों के लिए स्वराज का मतलब था गलघोंटू अंग्रेजी नीतियों का अंत। वे ऐसा माहौल चाहते थे जिससे व्यवसाय फले फूले। आतंकी घटनाओं और कांग्रेस के युवा सदस्यों में समाजवाद के बढ़ते प्रभाव से वे चिंतित थे क्योंकि अशांत माहौल में व्यवसाय में खलल पड़ता था।
औद्योगिक मजदूर
कांग्रेस के सविनय अवज्ञा आंदोलन के प्रति औद्योगिक मजदूरों का रवैया ठंडा ही रहा। चूँकि उद्योगपति कांग्रेस के नजदीकी थे इसलिए मजदूरों ने इस आंदोलन से दूरी बनाए रखी। लेकिन कुछ मजदूर आंदोलन में शामिल हुए थे। कांग्रेस भी उद्योगपतियों को दरकिनार नहीं करना चाहती थी, इसलिए इसने मजदूरों की मांगों को अनसुना कर दिया।
महिलाओं की भागीदारी
सविनय अवज्ञा आंदोलन में महिलाओं ने भी बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया। लेकिन उनमें से अधिकांश शहरों में रह रही ऊँची जाति से थीं और ग्रामीण इलाकों के धनी घरों से थीं। लेकिन काफी लंबे समय तक कांग्रेस अपने संगठन में महिलाओं को जिम्मेदारी के पद देने से कतराती रही। कांग्रेस केवल महिलाओं की प्रतीकात्मक भागीदारी से ही संतुष्ट रहना चाहती थी।
सविनय अवज्ञा की सीमाएँ
दलितों की भागीदारी
शुरुआत में कांग्रेस ने दलितों पर ध्यान नहीं दिया, क्योंकि यह रुढ़िवादी सवर्ण हिंदुओं को नाराज नहीं करना चाहती थी। लेकिन महात्मा गाँधी का मानना था कि दलितों की स्थिति सुधारने के लिए सामाजिक सुधार आवश्यक थे। महात्मा गाँधी ने घोषणा की कि छुआछूत को समाप्त किए बगैर स्वराज की प्राप्ति नहीं हो सकती।
कई दलित नेता दलित समुदाय की समस्याओं का राजनैतिक समाधान चाहते थे। उन्होंने शैक्षिक संस्थानों में दलितों के लिए आरक्षण और दलितों के लिए पृथक चुनावी प्रक्रिया की मांग रखी। सविनय अवज्ञा आंदोलन में दलितों की भागीदारी सीमित ही रही।
डा. बी आर अंबेदकर ने 1930 में Depressed Classes Association का गठन किया। दूसरे गोल मेज सम्मेलन के दौरान, दलितों के लिए पृथक चुनाव प्रक्रिया के मुद्दे पर उनका गाँधीजी से टकराव भी हुआ था।
जब अंग्रेजी हुकूमत ने अंबेदकर की मांग मान ली तो गाँधीजी ने आमरण अनशन शुरु कर दिया। अंतत: अंबेदकर को गाँधीजी की बात माननी पड़ी। इसकी परिणति सितंबर 1932 में पूना पैक्ट पर हस्ताक्षर के रूप में हुई। इससे दलित वर्गों के लिए राज्य और केन्द्र की विधायिकाओं में आरक्षित सीट पर मुहर लगा दी गई। लेकिन मतदान आम जनता द्वारा किया जाना था।
मुसलमानों की भागीदारी
असहयोग-खिलाफत आंदोलन के क्षीण पड़ने के बाद मुसलमानों का एक बड़ा तबका कांग्रेस से दूर होता गया। 1920 के दशक के मध्य से ही कांग्रेस को हिंदू राष्ट्रवादी समूहों के साथ जोड़कर देखा जाने लगा।
कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच एक गठन बनाने की कोशिश हुई। मुहम्मद अली जिन्ना मुस्लिम लीग के एक महत्वपूर्ण नेता थे। वह पृथक चुनाव प्रक्रिया की मांग को छोड़ने को तैयार थे। लेकिन वह मुसलमानों के लिए केंद्रीय विधायिका में आरक्षित सीट चाहते थे। वह मुस्लिम बहुल इलाकों (पंजाब और बंगाल) में जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व चाहते थे। 1928 में हुए सर्वदलीय सम्मेलन में हिंदू महासभा के एम आर जयकर ने इस समझौते का घोर विरोध किया। इससे कांग्रेस और मुसलमानों के बीच की दूरी और बढ़ गई।
राष्ट्रवाद की भावना
जब लोग यह मानने लगते हैं कि वे एक ही राष्ट्र के अभिन्न अंग हैं और कोई बात उन्हें एकता के सूत्र में बाँधकर रखती है तो राष्ट्रवाद की भावना पनपती है। स्वाधीनता की लड़ाई ने लोगों में एकता की भावना को जन्म दिया। इसके अलावा, कई सांस्कृतिक प्रक्रियाओं ने भी राष्ट्रवाद की भावना को यथार्थ करने में अपनी भूमिका निभाई।
तस्वीरों में राष्ट्र: राष्ट्र की पहचान को सामान्यतया किसी चित्र द्वारा मूर्त रूप दिया जाता है; जिससे लोग राष्ट्र की पहचान कर सकें। भारत माता का चित्र मातृभूमि की परिकल्पना को कागज पर उतारती थी। बंकिम चंद्र चटर्जी ने 1870 में राष्ट्रगीत वंदे मातरम लिखा था। इसे बंगाल में स्वदेशी आंदोलन के दौरान गाया गया था। विभिन्न कलाकारों ने भारत माता को अपने अपने तरीके से प्रस्तुत किया था।
लोककथाएँ: कई राष्ट्रवादी नेताओं ने राष्ट्रवाद की भावना का प्रसार करने के लिए लोककथाओं का सहारा लिया। उनका ऐसा मानना था कि लोककथाएँ ही पारंपरिक संस्कृति को सही ढ़ंग से दिखाती हैं।
राष्ट्रीय ध्वज: जो राष्ट्र ध्वज हम आज देखते हैं उसका विकास कई चरणों में हुआ है। स्वदेशी आंदोलन के दौरान एक तिरंगे (लाल, हरा और पीला) का प्रयोग हुआ था। इस झंडे में उस समय के आठ राज्यों के प्रतीक के रूप में आठ कमल के फूल बने हुए थे। इस पर एक दूज का चाँद भी था जो हिंदू और मुसलमानों का प्रतीक था। गाँधीजी ने 1921 तक स्वराज ध्वज का डिजाइन तैयार किया था। यह भी एक तिरंगा ही था (लाल, हरा और सफेद) जिसके बीच में एक चरखा था।
इतिहास की पुनर्व्याख्या: कई भारतीयों का मानना था कि अंग्रेजों ने भारत के इतिहास को तोड़ मरोड़कर पेश किया था। उन्हें लगता था कि हमारे इतिहास को भारतीय दृष्टिकोण से जानने की जरूरत है। वे भारत के सुनहरे अतीत को उजागर करना चाहते थे ताकि भारतीय लोगों को इसपर गर्व महसूस हो सके।
NCERT Solution
प्रश्न:1 व्याख्या करें:
प्रश्न:a) उपनिवेशों में राष्ट्रवाद के उदय की प्रक्रिया उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन से जुड़ी हुई क्यों थी?
उत्तर: उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन ने लोगों को एक प्रबल मुद्दा दिया जिससे वे आसानी से जुड़ सके और एक ही प्लेटफॉर्म पर आ सके। इसलिए ऐसा कहा जा सकता है कि उपनिवेशों में राष्ट्रवाद के उदय की प्रक्रिया उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन से जुड़ी हुई थी।
प्रश्न:b) पहले विश्व युद्ध ने भारत में राष्ट्रीय आंदोलन के विकास में किस प्रकार योगदान दिया?
उत्तर: पहले विश्व युद्ध ने भारत के लोगों के लिए भारी आर्थिक समस्या खड़ी कर दी। इसके अलावा, भारतीय लोगों की ब्रिटिश सेना में जबरन भर्ती ने भी लोगों को उपनिवेशी शासकों के खिलाफ कर दिया। यह राष्ट्रवादी नेताओं के लिए बड़ा ही अनुकूल समय था जब वे लोगों को उपनिवेशी शासकों के विरोध में जाने के लिए उकसा सकते थे। इस तरह से प्रथम विश्व युद्ध ने भारत में राष्ट्रीय आंदोलन के विकास में अच्छा योगदान किया।
प्रश्न:c) भारत के लोग रॉलट एक्ट के विरोध में क्यों थे?
उत्तर: रॉलट एक्ट ने उपनिवेशी शासकों अकूत ताकत प्रदान की। यह कानून राजनीतिक दलों के निर्माण और विरोध के खिलाफ काम करने वाला था। इसलिए भारत के लोग रॉलट एक्ट के खिलाफ थे।
प्रश्न:d) गांधीजी ने असहयोग आंदोलन को वापस लेने का फैसला क्यों लिया?
उत्तर: 1921 आते आते यह आंदोलन कई जगह हिंसक होने लगा था। गांधीजी किसी भी प्रकार की हिंसा के सख्त खिलाफ थे, इसलिए उन्होंने असहयोग आंदोलन को वापस लेने का फैसला लिया।
प्रश्न:2 सत्याग्रह के विचार का क्या मतलब है?
उत्तर: महात्मा गांधी ने जन आंदोलन का एक नायाब तरीका निकाला जिसे सत्याग्रह का नाम दिया गया। यह इस सिद्धांत पर आधारित था कि यदि कोई सही मुद्दे के लिए लड़ रहा है तो फिर उस लड़ाई के लिए लाठी या गोली की ताकत की जरूरत नहीं है। गांधीजी का मानना था कि एक सत्याग्रही किसी भी लड़ाई को अहिंसा से जीत सकता है। इसके लिए बदले की भावना या हिंसा की भावना की कोई जरूरत नहीं है।
प्रश्न:3 निम्नलिखित पर अखबार के लिए रिपोर्ट लिखें:
प्रश्न:a) जलियाँवाला बाग हत्याकांड
उत्तर: अमृतसर, 13 अप्रैल 1919: अंग्रेजी जेनरल डायर ने जलियाँवाला बाग में मेला देखने आये निर्दोष लोगों पर गोली चलाने के आदेश दिये। बाहर जाने के सारे रास्ते बंद कर दिये गये थे ताकि अंग्रेजी ताकत के गुस्से से कोई न बच सके। इस गोलीकांड में कई लोगों की जान चली गई और उनसे कई गुना अधिक लोग घायल हो गये।
प्रश्न:b) साइमन कमिशन
उत्तर: लंदन 1928: भारत में संवैधानिक सिस्टम की कार्यप्रणाली को सुचारु करने के लिए अंग्रेजी सरकार ने साइमन कमीशन का गठन किया है। ऐसा कहा गया है कि यह कमीशन कुछ नये बदलाव लेकर आयेगी ताकि भारत में एक नये प्रशासनिक तंत्र को बनाया जाएगा। इस कमीशन की सबसे बड़ी विडंबना है कि इसमें एक भी भारतीय नहीं है। ज्यादातर विचारकों को यह बात समझ में नहीं आ रही है कि केवल अंग्रेजों से भरी हुई यह टीम भारत के मामलों में सही निर्णय कैसे लेगी। कांग्रेस और अन्य दलों के नेताओं ने इस कमिशन का बहिष्कार करने का निर्णय लिया है।
प्रश्न:4 इस अध्याय में दी गई भारत माता की छवि और अध्याय 1 में दी गई जर्मेनिया की छवि की तुलना कीजिए।
उत्तर: दोनों मामलों में मातृभूमि को एक महिला के रूप में दिखाया गया है। दोनों आकृतियो6 को पारंपरिक परिधानों से सजाया गया है और उनके हाथों में कुछ रूपक तत्व दिये गये हैं। ये रूपक स्वतंत्रता, उदारवाद, शांति और ऊर्जा के प्रतीक हैं।
प्रश्न:5 1921 में असहयोग आंदोलन में शामिल होने वाले सभी सामाजिक समूहों की सूची बनाइए। इसके बाद उनमें से किन्हीं तीन को चुन कर उनकी आशाओं और संघर्षों के बारे में लिखए हुए यह दर्शाइए कि वे आंदोलन में शामिल क्यों हुए।
उत्तर: असहयोग आंदोलन में किसान, आदिवासी, बागान मजदूर, छात्र, वकील, सरकारी कर्मचारी, महिलाएँ, आदि शामिल हुई थीं। इनमे से तीन का विवरण नीचे दिया गया है:
किसान: किसानों का विरोध अधिक मालगुजारी और तालुकदार और जमींदारों द्वारा लगाये गये अन्य शुल्कों के खिलाफ था। किसानों की माँग थी कि मालगुजारी को कम किया जाए, बेगार को समाप्त किया जाए और जमींदारों का बहिष्कार किया जाए।
आदिवासी: आदिवासियों ने महात्मा गांधी के स्वराज का अपना ही अर्थ निकाला था। आदिवासियों को जंगल में पशु चराने और वहाँ से फल और जलावन लेने की मनाही थी। इस तरह से जंगल के नए कानून उनकी आजीविका के लिए खतरा साबित हो रहे थे। सरकार उन्हें सड़क निर्माण में बेगार करने के लिए बाधित कर रही थी। आदिवासी मानते थे कि इस आंदोलन से उन्हें उन सब समस्याओं से छुटकारा मिल जाएगा।
बागान मजदूर: इंडियन एमिग्रेशन एक्ट 1859 के अनुसार बागान में काम करने वाले मजदूरों को बिना अनुमति के बागान छोड़ने की मनाही थी। जब असहयोग आंदोलन की खबर चारों ओर फैलने लगी तो बादान के कई मजदूरों ने वहाँ के अफसरों की आज्ञा मानने से इनकार कर दिया।
प्रश्न:6 नमक यात्रा की चर्चा करते हुए स्पष्ट करें कि यह उपनिवेशव्बाद के खिलाफ प्रतिरोध का एक असरदार प्रतीक था।
उत्तर: नमक एक शक्तिशाली प्रतीक था जिसे हर व्यक्ति से जोड़ा जा सकता था। नमक का इस्तेमाल हर तबके का आदमी समान रूप से करता था। गरीबों के लिए नमक कर को समाप्त करने का मतलब था दाम में गिरावट। किसी व्यवसायी के लिए इसका मतलब था कि वे ऐसे कई अन्य करों की समाप्ति की उम्मीद कर सकते थे जिससे उनका व्यवसाय प्रभावित हो रहा था।
प्रश्न:7 कल्पना कीजिए कि आप सिविल नाफरमानी आंदोलन में हिस्सा लेने वाली महिला हैं। बताइए कि इस अनुभव का आपके जीवन में क्या अर्थ होता।
उत्तर: पारंपरिक तौर पर एक महिला की भूमिका घर चलाने की मानी जाती है। लेकिन असहयोग आंदोलन में भाग लेकर मैं राष्ट्र निर्माण में भागीदारी कर सकूंगी। यह मेरे लिए किसी प्रोत्साहन से कम नहीं था। जब मैंने लाठी चार्ज में घायल व्यक्तियों की सेवा की तो मेरा हृदय उल्लास से भर गया। ऐसा लग रहा था जैसे मैं अपने ही भाई बंधुओं की सेवा कर रही थी।
प्रश्न:8 राजनीतिक नेता पृथक निर्वाचिका के सवाल पर क्यों बँटे हुए थे?
उत्तर: जिन्ना जैसे कई नेता मानते थे कि हिंदु बहुल देश में मुसलमानों का भविष्य सुरक्षित नहीं रहेगा। वह अपने समुदाय के लिए अधिक शक्ति की इच्छा रखते थे। अंबेदकर जैसे दलित नेताओं की स्थिति भी कमोबेश वैसी ही थी। दलितों के खिलाफ उत्पीड़न के एक लंबे इतिहास के कारण उन्हें यह डर था कि सवर्णों के हाथों में राजनीतिक सत्ता आने से दलितों की स्थिति और भी खराब हो जाएगी। दूसरी ओर, महात्मा गांधी का मानना था कि पृथक निर्वाचिका बनाने से वैसे लोग मुख्य धारा से और भी दूर चले जाएँगे। उन्हें लगता था कि पृथक निर्वाचिका बनाने से हाशिए पर रहने वाले लोगों को मुख्य धारा से जोड़ना और भी मुश्किल हो जाएगा। इसलिए विभिन्न नेता पृथक निर्वाचिका के सवाल पर बँटे हुए थे।
Extra Questions Answers
प्रश्न:1 सत्याग्रह का सिद्धांत क्या कहता है?
उत्तर: सत्याग्रह का सिद्धांत कहता है कि यदि कोई सही मकसद के लिये लड़ाई लड़ रहा हो तो उसे अपने ऊपर अत्याचार करने वाले से लड़ने के लिये ताकत की जरूरत नहीं होती है।
प्रश्न:2 रॉलैट ऐक्ट ने अंग्रेजी सरकार को क्या शक्तियाँ प्रदान की?
उत्तर: इस ऐक्ट ने सरकार को राजनैतिक गतिविधियों को कुचलने के लिये असीम शक्ति दे दी थी। इस ऐक्ट के मुताबिक बिना ट्रायल के ही राजनैतिक कैदियों को दो साल तक के लिये बंदी बनाया जा सकता था।
प्रश्न:3 असहयोग से गांधीजी का मतलब था?
उत्तर: महात्मा गांधी ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक स्वराज (1909) में लिखा कि भारत में अंग्रेजी राज इसलिए स्थापित हो पाया क्योंकि भारत के लोगों ने उनके साथ सहयोग किया। भारतीय लोगों के सहयोग के कारण अंग्रेज यहाँ पर हुकूमत करते रहे। यदि भारत के लोग सहयोग करना बंद कर दें, तो अंग्रेजी राज एक साल के अंदर चरमरा जायेगा और स्वराज आ जायेगा। गांधीजी को पूरा विश्वास था कि यदि भारतीय लोग अंग्रेजों से सहयोग करना बंद कर देंगे तो अंग्रेजों के पास भारत को छोड़कर जाने के सिवा और कोई रास्ता नहीं बचेगा।
प्रश्न:4 असहयोग आंदोलन के कुछ प्रस्तावों को लिखें।
उत्तर: असहयोग आंदोलंके कुछ प्रस्ताव निम्नलिखित हैं:
- अंग्रेजी सरकार द्वारा प्रदान की गई उपाधियों को वापस करना।
- सिविल सर्विस, सेना, पुलिस, कोर्ट, लेजिस्लेटिव काउंसिल और स्कूलों का बहिष्कार।
- विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार।
- यदि सरकार अपनी दमनकारी नीतियों से बाज न आये, तो संपूर्ण अवज्ञा आंदोलन शुरु करना।
प्रश्न:5 असहयोग आंदोलन ठंढ़ा क्यों पड़ गया?
उत्तर: असहयोग आंदोलन निम्नलिखित कारणों से ठंढ़ा पड़ गया:
- मिल में बने कपड़ों की तुलना में खादी महँगी पड़ती थी। गरीब लोग खादी को खरीदने में समर्थ नहीं थे।
- अंग्रेजी संस्थानों के बहिष्कार से विकल्प के तौर पर भारतीय संस्थानों की कमी की समस्या उत्पन्न हो गई। ऐसे संस्थान बहुत धीरे-धीरे पनप पा रहे थे। शिक्षक और छात्र दोबारा स्कूलों में जाने लगे। इसी तरह वकील भी अपने काम पर लौटने लगे।
प्रश्न:6 साइमन कमीशन बनाने का मुख्य उद्देश्य क्या था?
उत्तर: इस कमीशन को भारत में संवैधानिक सिस्टम के कार्य का मूल्यांकन करने और जरूरी बदलाव के सुझाव देने के लिए बनाया गया था।
प्रश्न:7साइमन कमीशन का विरोध क्यों हुआ?
उत्तर: इस कमीशन में केवल अंग्रेज सदस्य ही थे, एक भी भारतीय सदस्य नहीं था। इसलिए भारतीय नेताओं ने इसका विरोध किया।
प्रश्न:8 दांडी मार्च का देश में क्या असर हुआ?
उत्तर: दांडी मार्च ने सविनय अवज्ञा आंदोलन की शुरुआत की। देश के विभिन्न भागों में हजारों लोगों ने नमक कानून को तोड़ा। लोगों ने सरकारी नमक कारखानों के सामने धरना प्रदर्शन किया। विदेशी कपड़ों का बहिष्कार किया गया। किसानों ने लगान देने से मना कर दिया। आदिवासियों ने जंगल संबंधी कानूनों का उल्लंघन किया।
प्रश्न:9 किसानों के लिये स्वराज की लड़ाई का क्या मतलब था?
उत्तर: किसानों के लिए स्वराज की लड़ाई का मतलब था अधिक लगान के विरुद्ध लड़ाई। जब 1931 में लगान दरों में सुधार के बगैर ही आंदोलन बंद कर दिया गया तो किसान अत्यधिक निराश थे। जब 1932 में आंदोलन को दोबारा शुरु किया गया तो अधिकांश किसानों ने इसमें भाग लेने से मना कर दिया।
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