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Tuesday, June 11, 2019

भूगोल-Chapter-1.संसाधन

1.संसाधन

संसाधन: हमारे पर्यावरण में उपलब्ध हर वह वस्तु संसाधन कहलाती है जिसका इस्तेमाल हम अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये कर सकते हैं, जिसे बनाने के लिये हमारे पास प्रौद्योगिकी है और जिसका इस्तेमाल सांस्कृतिक रूप से मान्य है।

संसाधन के प्रकार:

संसाधन को विभिन्न आधारों पर विभिन्न प्रकारों में बाँटा जा सकता है; जो नीचे दिये गये हैं:
उत्पत्ति के आधार पर: जैव और अजैव संसाधन
समाप्यता के आधार पर: नवीकरण योग्य और अनवीकरण योग्य संसाधन
स्वामित्व के आधार पर: व्यक्तिगत, सामुदायिक, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संसाधन
विकास के स्तर के आधार पर: संभावी, विकसित भंडार और संचित कोष

उत्पत्ति के आधार पर संसाधन के प्रकार

जैव संसाधन: वैसे संसाधन जैव संसाधन कहलाते हैं जो जैव मंडल से मिलते हैं। उदाहरण: मनुष्य, वनस्पति, मछलियाँ, प्राणिजात, पशुधन, आदि।
अजैव संसाधन: वैसे संसाधन अजैव संसाधन कहलाते है जो निर्जीव पदार्थों से मिलते हैं। उदाहरण: मिट्टी, हवा, पानी, धातु, पत्थर, आदि।

समाप्यता के आधार पर संसाधन के प्रकार:

नवीकरण योग्य संसाधन: कुछ संसाधन ऐसे होते हैं जिन्हें हम भौतिक, रासायनिक या यांत्रिक प्रक्रिया द्वारा नवीकृत या पुन: उत्पन्न कर सकते हैं। ऐसे संसाधन को नवीकरण योग्य संसाधन कहते हैं। उदाहरण: सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, जल, जीव जंतु, आदि।
अनवीकरण योग्य संसाधन: कुछ संसाधन ऐसे होते हैं जिन्हें हम किसी भी तरीके से नवीकृत या पुन: उत्पन्न नहीं कर सकते हैं। ऐसे संसाधन को अनीवकरण योग्य संसाधन कहते हैं। उदाहरण: जीवाष्म ईंधन, धातु, आदि। इन संसाधनों के निर्माण में लाखों वर्ष लग जाते हैं। इसलिए इनका नवीकरण करना असंभव होता है। इनमें से कुछ संसाधनों को पुन: चक्रीय किया जा सकता है, जैसे कि धातु। कुछ ऐसे संसाधन भी होते हैं जिनका पुन: चक्रीकरण नहीं किया जा सकता है, जैसे कि; जीवाष्म ईंधन।

स्वामित्व के आधार पर संसाधनों के प्रकार:

व्यक्तिगत संसाधन: वैसे संसाधन व्यकतिगत संसाधन कहलाते हैं जिनका स्वामित्व निजी व्यक्तियों के पास होता है। उदाहरण: किसी किसान की जमीन, घर, आदि।
सामुदायिक संसाधन: वैसे संसाधन सामुदायिक संसाधन कहलाते हैं जिनका स्वामित्व समुदाय या समाज के पास होता है। उदाहरण: चारागाह, तालाब, पार्क, श्मशान, कब्रिस्तान, आदि।
राष्ट्रीय संसाधन: वैसे संसाधन राष्ट्रीय संसाधन कहलाते हैं जिनका स्वामित्व राष्ट्र के पास होता है। उदाहरण: सरकारी जमीन, सड़क, नहर, रेल, आदि।
अंतर्राष्ट्रीय संसाधन: वैसे संसाधन अंतर्राष्ट्रीय संसाधन कहलाते हैं जिनका नियंत्रण अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा किया जाता है। इसे समझने के लिये समुद्री क्षेत्र का उदाहरण लेते हैं। किसी भी देश की तट रेखा से 200 किमी तक के समुद्री क्षेत्र पर ही उस देश का नियंत्रण होता है। उसके आगे के समुद्री क्षेत्र अंतर्राष्ट्रीय संसाधन की श्रेणी में आता है।

विकास के स्तर के आधार पर संसाधन के प्रकार:

संभावी संसाधन: किसी भी देश या क्षेत्र में कुछ ऐसे संसाधन होते हैं जिनका उपयोग वर्तमान में नहीं हो रहा होता है। इन्हें संभावी संसाधन कहते हैं। उदाहरण: गुजरात और राजस्थान में उपलब्ध सौर ऊर्जा और पवन ऊर्जा।
विकसित संसाधन: वैसे संसाधन विकसित संसाधन कहलाते हैं जिनका सर्वेक्षण हो चुका है और जिनके उपयोग की गुणवत्ता और मात्रा निर्धारित हो चुकी है।
भंडार: कुछ ऐसे संसाधन होते हैं जो उपलब्ध तो हैं लेकिन उनके सही इस्तेमाल के लिये हमारे पास उचित टेक्नॉलोजी का अभाव है। ऐसे संसाधन को भंडार कहते हैं। उदाहरण: हाइड्रोजन ईंधन। अभी हमारे पास हाईड्रोजन ईंधन के इस्तेमाल लिये उचित टेक्नॉलोजी नहीं है।
संचित कोष: यह भंडार का हिस्सा होता है। इसके उपयोग के लिये टेक्नॉलोजी तो मौजूद है लेकिन अभी उसका सही ढ़ंग से इस्तेमाल नहीं हो रहा है। उदाहरण: नदी के जल से पनबिजली परियोजना द्वारा बिजली निकाली जा सकती है। लेकिन वर्तमान में इसका इस्तेमाल सीमित पैमाने पर ही हो रहा है।

संसाधनों का अंधाधुंध इस्तेमाल

संसाधन हमारे लिये अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। लेकिन हम संसाधनों का अंधाधुंध इस्तेमाल कर रहे हैं। इससे कई समस्याएँ खड़ी हो रही हैं। कुछ उदाहरण नीचे दिये गये हैं।
कुछ संसाधन कुछ सीमित लोगों के हाथों में है। इससे दूसरे लोगों को तकलीफ होती है।
संसाधन के अंधाधुंध इस्तेमाल से पूरी दुनिया में पर्यावरण की समस्या उत्पन्न हो गई है, जैसे कि ग्लोबल वार्मिंग, पारितंत्र पर खतरा, ओजोन लेयर में सुराख, आदि।
संसाधन का समान रूप से वितरण और सही इस्तेमाल इसलिये जरूरि है ताकि सतत पोषणीय विकास हो सके।

सतत पोषणीय विकास: जब विकास होने के क्रम में पर्यावरण को नुकसान न पहुँचे और भविष्य की जरूरतों की अनदेखी न हो तो ऐसे विकास को सतत पोषणीय विकास कहते हैं।
संसाधनों के सही इस्तेमाल और सतत पोषणीय विकास के मुद्दे पर 1992 में रियो डे जेनेरो में अर्थ समिट का आयोजन किया गया था। इस सम्मेलन में एक सौ राष्ट्राध्यक्ष शामिल हुए थे। वे सभी एजेंडा 21 पर सहमत हुए थे। इस एजेंडा का मुख्य मुद्दा था सतत पोषणीय विकास और संसाधन का सही इस्तेमाल। इस एजेंडा मे समान हितों, पारस्परिक जरूरतों और सम्मिलित जिम्मेदारियों को ध्यान में रखते हुए विश्व सहयोग की बात की गई है ताकि पर्यावरण की क्षति, गरीबी और रोगों से मुकाबला किया जा सके।

संसाधन नियोजन:

संसाधन नियोजन के द्वारा हम संसाधनों का विवेकपूर्ण इस्तेमाल कर सकते हैं। भारत में संसाधनों का वितरण समुचित नहीं है। ऐसे में संसाधन नियोजन और भी महत्वपूर्ण हो जाता है। कई राज्यों के पास प्रचुर मात्रा में खनिज तो अन्य संसाधनों का अभाव है। झारखंड में खनिजों के प्रचुर भंडार हैं लेकिन वहाँ पेय जल और अन्य सुविधाओं का अभाव है। मेघालय में जल की कोई कमी नहीं है लेकिन वहाँ अन्य संसाधनों का अभाव है। इसलिए इन क्षेत्रों का सही विकास नहीं हो पाया है। ऐसे में होने वाली समस्या को हम संसाधनों के विवेकपूर्ण इस्तेमाल से ही कम कर सकते हैं।

भारत में संसाधन नियोजन:

संसाधनों की मदद से समुचित विकास करने के लिये यह जरूरी है कि योजना बनाते समय टेक्नॉलोजी, कौशल और संस्थागत बातों का ध्यान रखा जाये। प्रथम पंचवर्षीय योजना से ही भारत में संसाधन नियोजन एक प्रमुख लक्ष्य रहा है। भारत में संसाधन नियोजन के मुख्य बिंदु निम्नलिखित हैं:
  • पूरे देश के विभिन्न प्रदेशों के संसाधनों की पहचान कर उनकी तालिका बनाना।
  • उपयुक कौशल, टेक्नॉलोजी और संस्थागत ढाँचे का सही इस्तेमाल करते हुए नियोजन ढ़ाँचा तैयार करना।
  • संसाधन नियोजन और विकास नियोजन के बीच सही तालमेल बैठाना।

संसाधनों का संरक्षण:

संसाधनों के दोहन से कई सामाजिक और आर्थिक समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं। गांधीजी का मानना था कि आधुनिक टेक्नॉलोजी की शोषणात्मक प्रवृत्ति ही पूरी दुनिया में संसाधनों के क्षय का मुख्य कारण है। गांधीजी अत्यधिक उत्पादन के खिलाफ थे और उसकी जगह जनसमुदाय द्वारा उत्पादन की वकालत करते थे।
पृथ्वी पर संसाधन सीमित मात्रा में ही हैं। यदि उनके अंधाधुंध इस्तेमाल पर रोक नहीं लगती है तो भविष्य में मानव जाति के लिये कुछ भी नहीं बचेगा। फिर हमारा अस्तित्व ही खतरे में पड़ जायेगा। इसलिए यह जरूरी हो जाता है कि हम संसाधनों का संरक्षण करें।

भू संसाधन:

प्राकृतिक संसाधनों में भू संसाधन सबसे महत्वपूर्ण है, क्योंकि भूमि हमारे जीवन को आधार प्रदान करती है। हम भूमि पर रहते हैं, इसपर खेती करते हैं, इसपर मकान बनाते हैं और हमारी जरूरत के लिये अधिकांश संसाधन भूमि से ही प्राप्त होते हैं। इसलिए भू संसाधन के इस्तेमाल के लिये सही योजना की आवश्यकता है। भारत में कई तरह की भूमि है; जैसे कि पहाड़, पठार, मैदान और द्वीप।
पहाड़: भारत की कुल भूमि का 30% पहाड़ों के रूप में है। भारत की कई नदियों का उद्गम इन्हीं पहाड़ों में है। पहाड़ों के कारण ही बारहमासी नदियों में जल का प्रवाह बना रहता है। ये नदियाँ अपने साथ उपजाऊ मिट्टी लाती हैं और मैदानों का निर्माण करती हैं। इन नदियों से मिलने वाला पानी हमारे खेतों की सिंचाई करता है। इन्हीं नदियों से हमें पीने का पानी भी मिलता है।

मैदान: भारत की कुल भूमि का 43% मैदान के रूप में है। मैदान की भूमि समतल होती है और इसलिए अधिकतर आर्थिक क्रियाओं के लिये अनुकूल होती है। मैदान की जमीन खेती के लायक होती है इसलिये मैदानों में घनी आबादी होती है। मकान और कल कारखाने भी समतल भूमि में आसानी से बनाये जा सकते हैं।
पठार: भारत की कुल भूमि का 27% पठारों के रूप में है। पठारों से हमें कई प्रकार के खनिज, जीवाष्म ईंधन और वन संपदा मिलती है।

भू उपयोग:

  • वन
  • कृषि के लिए अनुपलब्ध भूमि: कृषि के लिए अनुपलब्ध भूमि दो प्रकार की है।
    • बंजर और कृषि अयोग्य भूमि
    • गैर कृषि प्रयोगों के लिए भूमि: जैसे मकान, सड़क, कारखाने, आदि के लिए भूमि।
  • परती भूमि के अतिरिक्त अन्य कृषि अयोग्य भूमि
    • स्थाई चारागाहें तथा अन्य गोचर भूमि
    • विविध वृक्षों, वृक्ष फसलों तथा उपवनों के अधीन भूमि ((जो शुद्ध बोए गये क्षेत्र में शामिल नहीं हैं)
    • कृषि योग्य बंजर भूमि जहाँ पाँच से अधिक वर्षों से खेती नहीं हुई हो।
  • परती भूमि:
    • वर्तमान परती (जहाँ एक वर्ष या उससे कम समय से खेती नहीं हुई हो)
    • पुरातन परती (जहाँ एक से पाँच वर्षों से खती नहीं हुई हो)
  • शुद्ध (निवल) बोया गया क्षेत्र: एक वर्ष में एक बार से अधिक बोये गये खेत को यदि शुद्ध बोये गये क्षेत्र में जोड़ दिया जाए तो उसे सकल बोया गया क्षेत्र कहते हैं।

भारत में भू उपयोग का प्रारूप:

भू उपयोग का प्रारुप भौतिक और मानवीय कारकों पर निर्भर करता है। भौतिक कारक के उदाहरण हैं; जलवायु, भू आकृति, मृदा के प्रकार, आदि। मानवीय कारक के उदाहरण हैं; जनसंख्या, टेक्नॉलोजी, कौशल, जनसंख्या घनत्व, परंपरा, संस्कृति, आदि।
भारत का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 32.8 लाख वर्ग किमी है। लेकिन इसके 93% भाग के आँकड़े ही हमारे पास उपलब्ध हैं। इसका कारण ये है कि असम को छोड़कर पूर्वोत्तर राज्यों के आँकड़े नहीं लिए गये हैं। कुछ अपरिहार्य कारणों से पाकिस्तान और चीन के कब्जे वाली जमीन का सर्वेक्षण भी नहीं हो पाया है।

स्थाई चारागाहों के अंतर्गत भूमि कम हो रही है, जिससे पशुओं के चरने में समस्या उत्पन्न होगी। यदि परती भूमि और अन्य भूमि को भी शामिल कर लें तो भी शुद्ध बोये गये क्षेत्र का हिस्सा 54% से अधिक नहीं है। परती भूमि के अलावा बचने वाली भूमि की गुणवत्ता या तो अच्छी नहीं है या उसपर खेती करना महंगा साबित हो सकता है। इसलिए इस प्रकार की भूमि पर दो साल में केवल एक या दो बार ही खेती हो पाती है।
शुद्ध बोये जाने वाले क्षेत्र का प्रारूप एक राज्य से दूसरे राज्य में बदल जाता है। यह उस राज्य की भौगोलिक संरचना पर निर्भार करता है। पंजाब में 80% क्षेत्र शुद्ध बोये जाने वाले क्षेत्र के अंतर्गत आता है, क्योंकि यहाँ समतल भूमि है। अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम, मणिपुर और अंदमान निकोबार द्वीप समूह में यह घटकर 10% रह जाता है क्योंकि इन राज्यों की भूमि समतल नहीं है।
राष्ट्रीय वन नीति (1952) के अनुसार पारिस्थितिकी में संतुलन बनाए रखने के लिए कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 33% हिस्सा वन के रूप में होना चाहिए। लेकिन भारत में वन का क्षेत्र इससे कहीं कम है। ऐसा इसलिये हो रहा है कि यहाँ गैरकानूनी ढंग से जंगल की कटाई हो रही है और निर्माण कार्य में तेजी आई है। जंगल के आसपास एक बड़ी आबादी रहती है जो वन संपदा पर निर्भर करती है।
भूमि प्रबंधन और संरक्षण के समुचित उपायों के बगैर ही भूमि का लगातार और लंबे समय से उपयोग हो रहा है। इसके कारण भूमि का निम्नीकरण हो रहा है। इससे कृषि पैदावार में कमी आई है जिसका समाज पर बुरा असर हो रहा है। पर्यावरण पर भी गंभीर खतरे उत्पन्न हो गये हैं।
हमारे पूर्वजों ने जमीन का दोहन नहीं किया था। इसलिये हमें विरासत में मिलने वाली जमीन अच्छी स्थिति में थी। अब हमसे भी ऐसी ही उम्मीद की जा रही है कि हम आने वाली पीढ़ियों के लिये अच्छी स्थिति में जमीन रहने दें। हाल के दशकों में तेजी से बढ़ती जनसंख्या के कारण भू संसाधन का दोहन भी तेजी से बढ़ा है। इससे भूमि का तेजी से निम्नीकरण हो रहा है। मानव गतिविधियों के दुष्परिणामों ने प्राकृतिक शक्तियों को और भयानक बना दिया है जिससे भू संसाधन का निम्नीकरण हो रहा है।


ताजा आँकड़ों के अनुसार भारत में लगभग 13 करोड़ हेक्टेअर भूमि निम्नीकृत है। इसमें से लगभग 28% वनों के अंतर्गत आता है और 28% जल अपरदित क्षेत्र में आता है। निम्नीकृत भूमि का बाकी हिस्सा लवणीय और क्षारीय हो चुका है। भू निम्नीकरण के कुछ मुख्य कारण हैं, वनोन्मूलन, अति पशुचारण, खनन, जमीन का छोटे-छोटे टुकड़ों में विभाजन, आदि।

झारखंड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में खनन कार्य समाप्त हो जाने के बाद खानों को वैसे ही छोड़ दिया जाता है। वहाँ पर या तो मलबे के ढ़ेर होते हैं या गहरी खाइयाँ बन जाती हैं। ऐसी जमीन किसी काम की नहीं रह जाती है। इन राज्यों में खनन के अलावा वनोन्मूलन के कारण भी भूमि का निम्नीकरण तेजी से हुआ है।
उत्तर प्रदेश, पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों में अत्यधिक सिंचाई के कारण पानी की कमी हो रही और जलजमाव के कारण भूमि का अम्लीकरण या क्षारीकरण हो रहा है।
बिहार, असम और अरुणाचल प्रदेश जैसे राज्यों में बाढ़ की वजह से भूमि का निम्नीकरण हो रहा है। मानव गतिविधियों के दुष्परिणामों के कारण बाढ़ अब पहले से अधिक भयानक होने लगी है।
जिन राज्यों में खनिजों का परिष्करण होता है (चूना पत्थर तोड़ना, सीमेंट उत्पादन, आदि) वहाँ भारी मात्रा में धूल का निर्माण होता है। इस धूल के कारण मिट्टी द्वारा जल सोखने की प्रक्रिया में बाधा पड़ती है जिससे भूमि का निम्नीकरण हो रहा है।
भू निम्नीकरण से कई समस्याएँ उत्पन्न हो रही हैं; जैसे बाढ़, घटती उपज, आदि। इससे घरेलू सकल उत्पाद घट जाता है और देश को कई आर्थिक समस्याओं से जूझना पड़ता है।

भू संसाधनों के संरक्षण के उपाय:

भू निम्नीकरण को निम्न तरीकों से रोका जा सकता है:
  • वनारोपण
  • चारागाहों का समुचित प्रबंधन
  • काँटेदार झाड़ियाँ लगाकर रेतीले टीलों स्थिर बनाना
  • बंजर भूमि का उचित प्रबंधन
  • सिंचाई का समुचित प्रबंधन
  • फसलों की सही तरीके से कटाई
  • खनन प्रक्रिया पर नियंत्रण
  • खनन के बाद भूमि का समुचित प्रबंधन
  • औद्योगिक जल के परिष्करण के बाद जल का विसर्जन
  • सड़कों के किनारों पर वृक्षारोपण
  • वनोन्मूलन की रोकथाम

मृदा संसाधन

मृदा एक महत्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधन है। मिट्टी में ही खेती होती है। मिट्टी कई जीवों का प्राकृतिक आवास भी है।
मृदा का निर्माण: मिट्टी के निर्माण की प्रक्रिया अत्यंत धीमी होती है। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि मात्र एक सेमी मृदा को बनने में हजारों वर्ष लग जाते हैं। मृदा का निर्माण शैलों के अपघटन क्रिया से होता है। मृदा के निर्माण में कई प्राकृतिक कारकों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है; जैसे कि तापमान, पानी का बहाव, पवन। इस प्रक्रिया में कई भौतिक और रासायनिक परिवर्तनों का भी योगदान होता है।

मृदा का वर्गीकरण:

बनावट, रंग, उम्र, रासायनिक गुण, आदि के आधार पर मृदा के कई प्रकार होते हैं। भारत में पाई जाने वाली मृदा के प्रकार निम्नलिखित हैं:

जलोढ़ मृदा

उपलब्धता: जलोढ़ मृदा नदियों या नदियों द्वारा बनाए गये मैदानों में पाई जाती है। जलोढ़ मृदा की आयु कम होती है। भारत में यह मृदा पूर्व और उत्तर के मैदानों में पाई जाती है। इन क्षेत्रों में गंगा, यमुना और ब्रह्मपुत्र नाम की नदियाँ बहती हैं। जलोढ़ मृदा का संचयन नदियों के तंत्र द्वारा होता है। जलोढ़ मृदा पूरे उत्तरी मैदान में पाई जाती है। यह मृदा महानदी कृष्णा, गोदावरी और कावेरी के निकट के तटीय मैदानों में भी पाई जाती है।
गुण: जलोढ़ मृदा में सिल्ट, रेत और मृत्तिका विभिन्न अनुपातों में पाई जाती है। जब हम नदी के मुहाने से ऊपर घाटी की ओर बढ़ते हैं तो जलोढ़ मृदा के कणों का आकार बढ़ता जाता है। जलोढ़ मृदा बहुत उपजाऊ होती है। इसलिए उत्तर के मैदान में घनी आबादी बसती है।
कणों के आकार के अलावा, मृदा को हम आयु के हिसाब से भी कई प्रकारों में बाँट सकते हैं। पुरानी जलोढ़ मृदा को बांगर कहते हैं और नई जलोढ़ मृदा को खादर कहते हैं। बांगर के कण छोटे आकार के होते हैं जबकि खादर के कण बड़े आकार के होते हैं।
जलोढ़ मृदा में पोटाश, फॉस्फोरिक एसिड और चूना की प्रचुरता होती है। इसलिये यह मृदा गन्ने, धान, गेहूँ, मक्का और दाल की फसल के लिए बहुत उपयुक्त होती है।

काली मृदा

उपलब्धता: काली मृदा का नाम इसके काले रंग के कारण पड़ा है। इसे रेगर मृदा भी कहते हैं। काली मृदा दक्कन पठार के उत्तर पश्चिमी भाग में पाई जाती है। यह महाराष्ट्र, सौराष्ट्र, मालवा, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के पठारों में तथा कृष्णा और गोदावरी की घाटियों में पाई जाती है।
गुण: काली मृदा में सूक्ष्म कणों की प्रचुरता होती है। इसलिए इस मृदा में नमी को लम्बे समय तक रोकने की क्षमता होती है। इस मृदा में कैल्सियम, पोटाशियम, मैग्नीशियम और चूना होता है। काली मृदा कपास की खेती के लिए बहुत उपयुक्त होती है। इस मृदा में कई अन्य फसल भी उगाये जा सकते हैं।

लाल और पीली मृदा

रवे आग्नेय और रूपांतरित चट्टानों में लोहे की उपस्थिति के कारण इस मृदा का रंग लाल होता है। जब लोहे का जलयोजन हो जाता है तो इस मृदा का रंग पीला होता है। यह मृदा दक्कन पठार के पूर्वी और दक्षिणी भागों में पाई जाती है। यह मृदा उड़ीसा, छत्तीसगढ़, गंगा के मैदान के दक्षिणी भागों में तथा पश्चिमी घाट के पिडमॉन्ट जोन में भी पाई जाती है।

लैटराइट मृदा

लैटराइट मृदा का निर्माण उन क्षेत्रों में होता है जहाँ उच्च तापमान के साथ भारी वर्षा होती है। भारी वर्षा से निच्छालन होता है और जीवाणु मर जाते हैं। इस कारण से लैटराइट मृदा में ह्यूमस न के बराबर होती है या बिलकुल भी नहीं होती है। यह मृदा मुख्य रूप से केरल, कर्णाटक, तमिल नाडु, मध्य प्रदेश और उड़ीसा तथा असम के पहाड़ी क्षेत्रों में पाई जाती है। इस मृदा को खाद के भरपूर प्रयोग से खेती के लायक बनाया जा सकता है।

मरुस्थली मृदा

यह मृदा उन स्थानों में पाई जाती है जहाँ अल्प वर्षा होती है। इन क्षेत्रों में अधिक तापमान के कारण वाष्पीकरण तेजी से होता है। इस मृदा में लवण की मात्रा अत्यधिक होती है। इस मृदा को समुचित उपचार के बाद खेती के लायक बनाया जा सकता है। मरुस्थली मृदा राजस्थान और गुजरात में पाई जाती है।

वन मृदा

वन मृदा पहाड़ी क्षेत्रों में पाई जाती है। ऊपरी ढ़लानों पर यह मृदा अत्यधिक अम्लीय होती है। लेकिन निचले भागों में यह मृदा काफी उपजाऊ होती है।

मृदा अपरदन और संरक्षण

मृदा के कटाव और उसके बहाव की प्रक्रिया को मृदा अपरदन कहते हैं। मृदा अपरदन के मुख्य कारण हैं; वनोन्मूलन, सघन कृषि, अति पशुचारण, भवन निर्माण और अन्य मानव क्रियाएँ। मृदा अपरदन से मरुस्थल बनने का खतरा रहता है।
मृदा अपरदन को रोकने के लिए मृदा संरक्षण की आवश्यकता है। इसके लिए कई उपाय किये जा सकते हैं। पेड़ों की जड़ें मृदा की ऊपरी परत को बचाए रखती हैं। इसलिये वनरोपण से मृदा संरक्षण किया जा सकता है। ढ़ाल वाली जगहों पर समोच्च जुताई से मृदा के अपरदन को रोका जा सकता है। पेड़ों को लगाकर रक्षक मेखला बनाने से भी मृदा अपरदन की रोकथाम हो सकती है।

NCERT Solution

बहुवैकल्पिक प्रश्न:

प्रश्न:1पंजाब में भूमि निम्नीकरण का निम्नलिखि में से मुख्य कारण क्या है?
  • गहन खेती
  • वनोन्मूलन
  • अधिक सिंचाई
  • अति पशुचारण
उत्तर: अधिक सिंचाई
प्रश्न:2लौह अयस्क किस प्रकार का संसाधन है?
  • नवीकरण योग्य
  • जैव
  • प्रवाह
  • अनवीकरण योग्य
उत्तर:अनवीकरण योग्य
प्रश्न:3ज्वारीय ऊर्जा निम्नलिखित में से किस प्रकार का संसाधन है?
  • पुन: पूर्ति योग्य
  • मानवकृत
  • अजैव
  • अचक्रीय
उत्तर:पुन: पूर्ति योग्य
प्रश्न:4निम्नलिखित में से किस प्रांत में सीढ़ीदार (सोपानी) खेती की जाती है?
  • पंजाब
  • हरियाणा
  • उत्तर प्रदेश के मैदान
  • उत्तरांचल
उत्तर:उत्तरांचल
प्रश्न:5इनमें से किस राज्य में काली मृदा पाई जाती है?
  • जम्मू और कश्मीर
  • गुजरात
  • राजस्थान
  • झारखंड
उत्तर: गुजरात

निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 30 शब्दों में दीजिए:

प्रश्न:1तीन राज्यों के नाम बताएँ जहाँ काली मृदा पाई जाती है। इस पर मुख्य रूप से कौन सी फसल उगाई जाती है?
उत्तर: काली मृदा महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में पाई जाती है। काली मृदा पर मुख्य रूप से कपास की फसल उगाई जाती है।
प्रश्न:2पूर्वी तट के नदी डेल्टाओं पर किस प्रकार की मृदा पाई जाती है? इस प्रकार की मृदा की तीन मुख्य विशेषताएँ क्या हैं?
उत्तर: पूर्वी तट के नदी डेल्टाओं पर जलोढ़ मृदा पाई जाती है। जलोढ़ मृदा में रेत, सिल्ट और मृत्तिका के विभिन्न अनुपात पाये जाते हैं। जलोढ़ मृदा में पानी को रोकने की अच्छी क्षमता होती है। यह धान की खेती के लिये बहुत उपयुक्त होती है।
प्रश्न:3पहाड़ी क्षेत्रों में मृदा अपरदन की रोकथाम के लिए क्या कदम उठाने चाहिए?
उत्तर: पहाड़ी क्षेत्रों में मृदा अपरदन की रोकथाम के लिये निम्न उपाय किये जा सकते हैं:
  • समोच्च जुताई
  • सीढ़ीनुमा खेत
प्रश्न:4जैव और अजैव संसाधन क्या होते हैं? कुछ उदाहरण दें।
उत्तर:जैव संसाधन: जो संसाधन जैव मंडल से आते हैं उन्हें जैव संसाधन कहते हैं। उदाहरण: मनुष्य, वनस्पति, मछलियाँ, प्राणिजात, पशुधन, आदि।
अजैव संसाधन:जो संसाधन निर्जीव पदार्थों से आते हैं उन्हें अजैव संसाधन कहते हैं। उदाहरण: मिट्टी, हवा, पानी, धातु, पत्थर, आदि।

निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 120 शब्दों में दीजिए:

प्रश्न:1भारत में भूमि उपयोग के प्रारूप का वर्णन करें। वर्ष 1960 – 61 से वन के अंतर्गत क्षेत्र में महत्वपूर्ण वृद्धि नहीं हुई, इसका क्या कारण है?
उत्तर:भारत में भू उपयोग का प्रारूप:
स्थाई चारागाहों के अंतर्गत भूमि कम हो रही है, जिससे पशुओं के चरने में समस्या उत्पन्न होगी। शुद्ध बोये गये क्षेत्र का हिस्सा 54% से अधिक नहीं; यदि हम परती भूमि के अलावे भी अन्य भूमि शामिल कर लें।
शुद्ध बोये जाने वाले क्षेत्र का प्रारूप एक राज्य से दूसरे राज्य में बदल जाता है। पंजाब में 80% क्षेत्र शुद्ध बोये जाने वाले क्षेत्र के अंतर्गत आता है, वहीं अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम, मणिपुर और अंदमान निकोबार द्वीप समूह में यह घटकर 10% रह जाता है।
गैरकानूनी ढ़ंग से जंगल की कटाई और अन्य गतिविधियों (सड़क और भवन निर्माण), आदि के कारण वन क्षेत्र बढ़ने की बजाय कम हो रहा है। दूसरी ओर जंगल के आस पास एक बड़ी आबादी रहती है जो वन संपदा पर निर्भर रहती है। इन सब कारणों से वनों में ह्रास हो रहा है।
प्रश्न:22. प्रौद्योगिक और आर्थिक विकास के कारण संसाधनों का अधिक उपभोग कैसे हुआ है?
उत्तर: प्रौद्योगिकी और आर्थिक विकास के कारण भारत के लोगों की आमदनी बढ़ी है। इससे हर चीज की मांग भी बढ़ी है। उत्पादों की बढ़ती हुई मांग को पूरा करने के लिए और भी अधिक संसाधनों की जरूरत पड़ती है। इसलिए संसाधनों की मांग भी बढ़ी है।



Extra Questions Answers

प्रश्न:1संसाधन किसे कहते हैं?
उत्तर: हमारे पर्यावरण में उपलब्ध हर वह वस्तु संसाधन कहलाती है जिसका इस्तेमाल हम अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये कर सकते हैं, जिसे बनाने के लिये हमारे पास प्रौद्योगिकी है और जिसका इस्तेमाल सांस्कृतिक रूप से मान्य है।
प्रश्न:2उत्पत्ति के आधार पर संसाधन के कौन कौन से प्रकार हैं?
उत्तर: जैव संसाधन और अजैव संसाधन
प्रश्न:3जैव संसाधन से क्या समझते हैं?
उत्तर: वैसे संसाधन जैव संसाधन कहलाते हैं जो जैव मंडल से मिलते हैं। उदाहरण: मनुष्य, वनस्पति, मछलियाँ, प्राणिजात, पशुधन, आदि।
प्रश्न:4अजैव संसाधन से क्या समझते हैं?
उत्तर: वैसे संसाधन अजैव संसाधन कहलाते है जो निर्जीव पदार्थों से मिलते हैं। उदाहरण: मिट्टी, हवा, पानी, धातु, पत्थर, आदि।
प्रश्न:5नवीकरण योग्य संसाधन का क्या मतलब है?
उत्तर: कुछ संसाधन ऐसे होते हैं जिन्हें हम भौतिक, रासायनिक या यांत्रिक प्रक्रिया द्वारा नवीकृत या पुन: उत्पन्न कर सकते हैं। ऐसे संसाधन को नवीकरण योग्य संसाधन कहते हैं। उदाहरण: सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, जल, जीव जंतु, आदि।
प्रश्न:6अनवीकरण योग्य संसाधन का क्या मतलब है?
उत्तर: कुछ संसाधन ऐसे होते हैं जिन्हें हम किसी भी तरीके से नवीकृत या पुन: उत्पन्न नहीं कर सकते हैं। ऐसे संसाधन को अनीवकरण योग्य संसाधन कहते हैं। उदाहरण: जीवाष्म ईंधन, धातु, आदि।
प्रश्न:7अंतर्राष्ट्रीय संसाधन से क्या समझते हैं?
उत्तर: वैसे संसाधन अंतर्राष्ट्रीय संसाधन कहलाते हैं जिनका नियंत्रण अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा किया जाता है। इसे समझने के लिये समुद्री क्षेत्र का उदाहरण लेते हैं। किसी भी देश की तट रेखा से 200 किमी तक के समुद्री क्षेत्र पर ही उस देश का नियंत्रण होता है। उसके आगे के समुद्री क्षेत्र अंतर्राष्ट्रीय संसाधन की श्रेणी में आता है।
प्रश्न:8संभावी संसाधन किसे कहते हैं?
उत्तर: किसी भी देश या क्षेत्र में कुछ ऐसे संसाधन होते हैं जिनका उपयोग वर्तमान में नहीं हो रहा होता है। इन्हें संभावी संसाधन कहते हैं। उदाहरण: गुजरात और राजस्थान में उपलब्ध सौर ऊर्जा और पवन ऊर्जा।

प्रश्न:9भंडार से क्या समझते हैं?
उत्तर: कुछ ऐसे संसाधन होते हैं जो उपलब्ध तो हैं लेकिन उनके सही इस्तेमाल के लिये हमारे पास उचित टेक्नॉलोजी का अभाव है। ऐसे संसाधन को भंडार कहते हैं। उदाहरण: हाइड्रोजन ईंधन। अभी हमारे पास हाईड्रोजन ईंधन के इस्तेमाल लिये उचित टेक्नॉलोजी नहीं है।
प्रश्न:10सतत पोषणीय विकास से आप क्या समझते हैं?
उत्तर: जब विकास होने के क्रम में पर्यावरण को नुकसान न पहुँचे और भविष्य की जरूरतों की अनदेखी न हो तो ऐसे विकास को सतत पोषणीय विकास कहते हैं।
प्रश्न:11भारत में संसाधन नियोजन के मुख्य बिंदु क्या हैं?
उत्तर: भारत में संसाधन नियोजन के मुख्य बिंदु निम्नलिखित हैं:
  • पूरे देश के विभिन्न प्रदेशों के संसाधनों की पहचान कर उनकी तालिका बनाना।
  • उपयुक कौशल, टेक्नॉलोजी और संस्थागत ढाँचे का सही इस्तेमाल करते हुए नियोजन ढ़ाँचा तैयार करना।
  • संसाधन नियोजन और विकास नियोजन के बीच सही तालमेल बैठाना।
प्रश्न:12संसाधनों का संरक्षण क्यों जरूरी है?
उत्तर: पृथ्वी पर संसाधन सीमित मात्रा में ही हैं। यदि उनके अंधाधुंध इस्तेमाल पर रोक नहीं लगती है तो भविष्य में मानव जाति के लिये कुछ भी नहीं बचेगा। फिर हमारा अस्तित्व ही खतरे में पड़ जायेगा। इसलिए यह जरूरी हो जाता है कि हम संसाधनों का संरक्षण करें।
प्रश्न:13भू संसाधन के तौर पर पहाड़ पर एक टिप्पणी लिखें।
उत्तर: भारत की कुल भूमि का 30% पहाड़ों के रूप में है। भारत की कई नदियों का उद्गम इन्हीं पहाड़ों में है। पहाड़ों के कारण ही बारहमासी नदियों में जल का प्रवाह बना रहता है। ये नदियाँ अपने साथ उपजाऊ मिट्टी लाती हैं और मैदानों का निर्माण करती हैं। इन नदियों से मिलने वाला पानी हमारे खेतों की सिंचाई करता है। इन्हीं नदियों से हमें पीने का पानी भी मिलता है।
प्रश्न:14भू संसाधन के रूप में मैदान पर एक टिप्पणी लिखें।
उत्तर: भारत की कुल भूमि का 43% मैदान के रूप में है। मैदान की भूमि समतल होती है और इसलिए अधिकतर आर्थिक क्रियाओं के लिये अनुकूल होती है। मैदान की जमीन खेती के लायक होती है इसलिये मैदानों में घनी आबादी होती है। मकान और कल कारखाने भी समतल भूमि में आसानी से बनाये जा सकते हैं।
प्रश्न:15भू उपयोग के प्रारूप को प्रभावित करने वाले भौतिक कारण कौन कौन से हैं?
उत्तर: जलवायु, भू आकृति, मृदा के प्रकार, आदि।

प्रश्न:16भू निम्नीकरण के मुख्य कारण क्या हैं?
उत्तर: भू निम्नीकरण के कुछ मुख्य कारण हैं, वनोन्मूलन, अति पशुचारण, खनन, जमीन का छोटे-छोटे टुकड़ों में विभाजन, आदि।
प्रश्न:17जलोढ़ मृदा के गुणों का वर्णन करें।
उत्तर: जलोढ़ मृदा में सिल्ट, रेत और मृत्तिका विभिन्न अनुपातों में पाई जाती है। जब हम नदी के मुहाने से ऊपर घाटी की ओर बढ़ते हैं तो जलोढ़ मृदा के कणों का आकार बढ़ता जाता है। जलोढ़ मृदा बहुत उपजाऊ होती है।
प्रश्न:18काली मृदा के गुणों का वर्णन करें।
उत्तर: काली मृदा में सूक्ष्म कणों की प्रचुरता होती है। इसलिए इस मृदा में नमी को लम्बे समय तक रोकने की क्षमता होती है। इस मृदा में कैल्सियम, पोटाशियम, मैग्नीशियम और चूना होता है। काली मृदा कपास की खेती के लिए बहुत उपयुक्त होती है। इस मृदा में कई अन्य फसल भी उगाये जा सकते हैं।
प्रश्न:19मृदा अपरदन क्या है? यह किन कारणों से होता है?
उत्तर: मृदा के कटाव और उसके बहाव की प्रक्रिया को मृदा अपरदन कहते हैं। मृदा अपरदन के मुख्य कारण हैं; वनोन्मूलन, सघन कृषि, अति पशुचारण, भवन निर्माण और अन्य मानव क्रियाएँ।
प्रश्न:20मृदा अपरदन की रोकथाम कैसे हो सकती है?
उत्तर: मृदा अपरदन को रोकने के लिए मृदा संरक्षण की आवश्यकता है। इसके लिए कई उपाय किये जा सकते हैं। पेड़ों की जड़ें मृदा की ऊपरी परत को बचाए रखती हैं। इसलिये वनरोपण से मृदा संरक्षण किया जा सकता है। ढ़ाल वाली जगहों पर समोच्च जुताई से मृदा के अपरदन को रोका जा सकता है। पेड़ों को लगाकर रक्षक मेखला बनाने से भी मृदा अपरदन की रोकथाम हो सकती है।
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